अफगानिस्तान में स्थिरता आए या वह पिछले 20 वर्षों से मिल रहे अमेरिकी डॉलर के फायदों का सही मायने में उपयोग कर सके, इसके बजाय दुनिया की दिलचस्पी इस बात में ज्यादा हो गई है कि उस देश की भू-सामरिक स्थिति का फायदा उठाया जाए और उसका आर्थिक शोषण किया जाए। भले इस वैश्विक होड़ में शामिल देशों की संख्या कम हो, लेकिन चीन ने अपना इरादा बिलकुल साफ कर दिया है। उसने तालिबान को 3.10 करोड़ डॉलर की मदद का वादा तभी कर दिया था जब अफगानिस्तान 33 सदस्यों की वह कैबिनेट भी घोषित नहीं कर पाया था जिसके 17 सदस्यों पर संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध लगे हुए थे। फिर भी, क्या चीन अफगानिस्तान के मौजूदा हालात में वहां से कमाई करने की स्थिति में है या उसे भी किनारे बैठ कर वहां एक हद तक स्थिरता कायम होने का इंतजार ही करना होगा?
क्यों लुभाता है अफगानिस्तान
अफगानिस्तान की जमीन में छिपे खनिज संसाधनों की कीमत 1 ट्रिलियन यानी 1 लाख करोड़ डॉलर से ऊपर होने का अनुमान है। अफगानिस्तान सरकार की ओर से आए कुछ अनुमानों के मुताबिक तो यह कीमत 3 तीन लाख करोड़ डॉलर से भी ज्यादा बताई गई है। इनमें कॉपर (तांबा), कोबाल्ट, बॉक्साइट, क्रोमियम, मर्करी (पारा) और यूरेनियम शामिल हैं। इसके अलावा वहां रेयर अर्थ मिनरल्स और लिथियम भी हैं जिनका बैटरीज में बहुतायत से इस्तेमाल होता है। तांबे के भंडार के लिहाज से अफगानिस्तान दुनिया में पांचवें स्थान पर है जबकि लौह अय़स्क (आयरन ओर) के लिहाज से 10वें स्थान पर।
अफगानिस्तान में ऐसी प्राथमिक औद्योगिक क्षमता भी नहीं है कि इन संसाधनों का अपने देश के अंदर इस्तेमाल कर थोड़ा बहुत भी फायदा उठा सके। रूसियों और अमेरिकियों ने व्यापक सर्वे करके उन क्षेत्रों की पहचान की जहां इन खनिज संसाधनों का व्यावसायिक दोहन किया जा सकता है।
आर्थिक पहलुओं से इतर अफगानिस्तान की सामरिक अहमियत इस बात में है कि यह मध्य एशियाई देशों तक पहुंचने का रास्ता मुहैया कराता है। चीनी बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) और चीन-पाकिस्तान इकॉनमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) जैसी विशाल परियोजनाएं अगर अफगानी भूभाग का इस्तेमाल किए बगैर आगे बढ़ाई जाएं तो इसके जो बेहिसाब फायदे बताए जा रहे हैं वे बेहद कम हो जाएंगे।
चीन के व्यावसायिक हित
अफगानिस्तान में चीनी हितों की बात काफी पहले से हो रही है। जिस सबसे बड़े प्रोजेक्ट पर चीन की नजरें लगी हुई हैं वह अफगानिस्तान के तांबा भंडार की खुदाई का है। तालिबान औऱ चीनियों के बीच पिछले करीब एक दशक से कामकाजी रिश्ते हैं। इसका एक उदाहरण यह है कि 2016 में ही तालिबान ने आश्वासन दिया था कि अगर चीनी कंपनियां काबुल के पास स्थित मेस अयनाक में तांबे की खुदाई करती हैं तो उन्हें किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा। तालिबान के इस आश्वासन के बावजूद प्रोजेक्ट आगे नहीं बढ़ सका।
वहां की व्यावसायिक गतिविधियों में चीनी काफी समय से निवेश कर रहे हैं। 2019 में अफगानिस्तान में चीन का अनुमानित एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) 40 करोड़ डॉलर था। इसकी तुलना में अमेरिकी एफडीआई महज 1.8 करोड़ डॉलर था। फिर भी आज की स्थिति बिलकुल अलग है। 2019 में अमेरिका वहां बिजनेस चलाने लायक स्थिरता बनाए रखने में सक्षम था। आज स्थिरता बनाए रखने की जिम्मेदारी तालिबान पर है। अफगानिस्तान में अशरफ गनी सरकार को सत्ता में बनाए रखने के लिए अमेरिकी जो डॉलर बहाए जा रहे थे, उसका फायदा चीन को मिला। क्या तालिबान दीर्घकालिक निवेश के लायक स्थिर माहौल कायम रख पाएंगे?
तालिबान प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद ने एक इतालवी अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा, (जैसा कि जियो न्यूज ने सितंबर, 2021 के शुरू में उद्धृत किया था), ‘चीन हमारा सबसे अहम साझेदार है और हमें बुनियादी तौर पर असाधारण अवसर मुहैया कराता है क्योंकि यह हमारे देश का पुनर्निर्माण करने, इसमें निवेश करने के लिए तैयार है।’
अफगानिस्तान की प्राथमिकताएं और चुनौतियां
आज की तारीख में तालिबान शासन की सर्वोच्च प्राथमिकता है स्थिरता और निवेश। वैश्विक बिरादरी से स्वीकार्यता पाना एक और चुनौती है जिससे उन्हें निपटना है। हालांकि दुनिया ने दूरी बनाए रखने की नीति अपनाते हुए तालिबान को अपने हाल पर छोड़ दिया है, लेकिन तालिबान घरेलू प्रतिरोध पर काबू नहीं पा सके हैं। अंदर से ही उभरते आईएसआईएस-के की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। हक्कानी ग्रुप का अपना एजेंडा है। पिछली सरकार में उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह ने अभी तक हथियार नहीं डाले हैं। और ताजिक नेता मसूद की भी ताकत पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। क्या तालिबान इन ताकतों को काबू कर पाएंगे? इतना ही नहीं, तालिबान कभी एकरूपीय संगठन नहीं रहा, उसकी भीतरी लड़ाइयां भी जल्दी खत्म नहीं होने वाली।
तालिबान समावेशी सरकार स्थापित करने में पहले ही नाकाम हो चुके हैं। हालांकि तालिबान 2.0 की गतिविधियां तालिबान 1.0 के दिनों की झलक नहीं दे रहीं, लेकिन फिर भी उनके अंदर का कट्टरपंथी हिस्सा शरिया कानूनों को उनके सबसे सख्त रूप में लागू कराना चाहता है। तालिबान का नजरिया अभी तक किसी को संतुष्ट नहीं कर पाया है। जो रियायतें दी गई हैं वे नाकाफी हैं और जो थोड़ा-बहुत सुधार दर्शाया जा रहा है, मंत्रालयों में कट्टरपंथियों के प्रभाव को देखते हुए वह कब तक बना रहेगा नहीं कहा जा सकता। महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बना ही दिया गया है।
चीन का संभावित नजरिया
अफगानिस्तान की अंदरूनी स्थिति जैसी भी रहे, चीन तालिबान के साथ रिश्ता बनाए रखना चाहेगा। 28 जुलाई 2021 को ही मुल्ला अब्दुल गनी बारादर पेइचिंग पहुंचे हुए थे। 23 सितंबर 2021 को जी20 की वर्चुअल बैठक में चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने अफगानिस्तान पर लगी आर्थिक पाबंदियां हटाने और उसे उसके विदेशी मुद्रा भंडार तक पहुंच देने की अपील की। अफगान राजनीति, अफगानी महिलाओं से जुड़े मुद्दे, समावेशी सरकार और ऐसे ही अन्य मुद्दे चीनी प्राथमिकता सूची में आंशिक रूप से ही आते हैं। इसके लिए बीच-बीच में मौखिक रस्म अदायगी भर करना काफी होता है।
चीन की दिलचस्पी यह सुनिश्चित करने में जरूर है कि विभिन्न आतंकी समूहों को अफगान सीमा से आगे ऑपरेशन चलाने के लिए अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल न करने दिया जाए। चीन और अफगानिस्तान एक संकरे से वखान कॉरिडोर के जरिए एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, जहां कुछ रिपोर्टों के मुताबिक चीन सड़क बनवा रहा है। ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) जो शिनजैंग में सक्रिय है और उइगरों की मदद करता है, इस कॉरिडोर का इस्तेमाल कर सकता था। रिपोर्टों से यह भी संकेत मिलता है कि ईटीआईएम के आईएसआईएस-के ही नहीं, ताजिक, उज्बेक, हजारा औऱ चेचन लड़ाकों से भी रिश्ते मजबूत होते जा रहे हैं। चीन चाहेगा कि उससे जो भी सहायता अफगानों को मिल रही है उसकी पूर्वशर्त के रूप में ऐसे एक-एक ग्रुप को ठिकाने लगाया जाए जो शिनजैंग में गड़बड़ियां फैला सकता है।
चूंकि कोई भी देश तालिबान को मान्यता देने में रुचि नहीं दिखा रहा, इसलिए चीन को इस मामले में कोई जल्दी भी नहीं है। फिर भी, चीन ने काबुल में अपने दूतावास कर्मचारियों को वहां बनाए रखा है।
हालांकि चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने सितंबर 2021 में ही अफगानिस्तान को 30 लाख डॉलर की पेशकश कर दी थी, लेकिन उसमें से कितना सचमुच दिया गया है, यह किसी को नहीं मालूम। चीनी तमाम मंचों पर, खासकर शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) और कलेक्टिव सिक्यॉरिटी ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (सीएसटीओ) में अफगान चिंता से जुड़े मुद्दे तो उठा रहे हैं लेकिन उसे जरूरी मदद मुहैया कराने का सवाल गोल कर जाते हैं। जाहिर है अफगानिस्तान ज्यादा समय तक इसे दोस्ताना रुख माने नहीं रह सकता।
बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव जिस तरह से फंसा दिख रहा है, उसके मद्देनजर निवेश को लेकर चीन का रुख आशंकाओं से भरा होगा। आम तौर पर चीन निवेश तभी करता है जब राजनीतिक और सामरिक दोनों उद्देश्य पूरे होते हैं और वित्तीय स्थितियां अनुकूल होती हैं। अफगानिस्तान राजनीतिक और सामरिक लिहाज से जरूर निवेश की पात्रता रखता है, लेकिन जब सुरक्षा से जुड़े पहलुओं की बात आती है तो वहां की अनिश्चितता को देखते हुए चीन बड़े पैमाने पर निवेश करने से बचेगा।
एससीओ और सीएसटीओ की वर्चुअल तथा आमने सामने की बैठकों में शी चिनफिंग ने अफगानिस्तान के पड़ोस के देशों से भूमिकाएं निभाने की अपील की। उन्हें लगता है कि एससीओ के सदस्य राष्ट्रों को एससीओ-अफगानिस्तान संपर्क समूह जैसे मंचों का पूरा इस्तेमाल करते हुए अफगानिस्तान में स्थिरता लाने में योगदान करना चाहिए। फिर भी चीन अफगान शासन पर अंकुश बनाए रखने और वहां अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए प्राथमिक तौर पर पाकिस्तान का ही सहारा लेगा। नतीजतन, चीन की रणनीति में पाकिस्तान का मजबूत स्थान बना रहेगा और उसकी हांफती अर्थव्यवस्था को ऑक्सीजन मिलता रहेगा। लेकिन जैसे-जैसे चीन और अन्य देशों के साथ संबंध बेहतर होंगे तालिबान कड़े पाकिस्तानी नियंत्रण से मुक्त होना चाहेंगे।
अफगानिस्तान में स्थिरता कायम करने के लिए पाकिस्तान से इतर, चीन रूसियों से भी हाथ मिला सकता है। लेकिन रूसी अफगानिस्तान में चीन के बढ़ते दखल को शायद ही पसंद करें क्योंकि इससे उनके मध्य एशियाई देशों में पैठ बनाने की संभावना बनती है। रूस इन देशों को पूरी तरह से अपने प्रभाव क्षेत्र के रूप में देखता है। अगस्त-सितंबर 2022 में रूसियों ने इस क्षेत्र में काफी बड़ा बहुराष्ट्रीय सैन्य अभ्यास किया।
अमेरिका भी नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान में चीन की पैठ ज्यादा बढ़े। इसके लिए वह भी पाकिस्तान पर ही भरोसा करेगा। मतलब यह कि पाकिस्तान इन दोनों देशों के बीच संतुलन बनाए रखते हुए इनसे ज्यादा से ज्यादा फंड हासिल करने की स्थिति में बना रहेगा। हाल ही में वह एफएटीएफ की वॉच लिस्ट से भी बाहर आ गया है। अब सधे कदमों से आगे बढ़ेगा।
चीन ने साम्राज्यों के कब्रगाह अफगानिस्तान की जमीन पर पांव धरने में कोई रुचि नहीं दिखाई है। विदेशों में लड़ने के लिए सेना भेजने का उनका कोई अनुभव नहीं है। यही नहीं, चीन से आने वाले साजो-सामान भी, संभवतया पाकिस्तान से होकर ही आएंगे। वखान कॉरिडोर, मौजूदा हालात में, इस काम के लिए बहुत छोटा पड़ेगा। फिलहाल चीन यही कर सकता है कि खुफिया सूचना के लिए आवश्यक संरचना खड़ी करके तालिबान शासन को खुफिया सूचनाएं मुहैया कराता रहे और ईटीआईएम पर नजर बनाए रखे।
चीन मूलतः वेट एंड वॉच (इंतजार करो और देखो) की नीति ही अख्तियार करने वाला है। तालिबान की अपेक्षाएं और उम्मीदें विभिन्न मंचों से चीन की चिंता व्यक्त करने वाले बयानों के जरिए पाली जाती रहेंगी। वह पाकिस्तान से अलग, स्वतंत्र रूप से तालिबान के साथ संबंध मजबूत करने की भी कोशिश करेगा। बहरहाल, चीन बड़े पैमाने पर अफगानिस्तान में अपना पैसा नहीं लगाने वाला, कम से कम निकट भविष्य में तो बिलकुल नहीं।
ब्रिगेडियर एस के चटर्जी (रिटायर्ड), संपादक, भारतशक्तिडॉटइन