रूस ने 8 अगस्त 2022 को घोषणा की कि वह अब अमेरिका को अपने परमाणु हथियारों और परमाणु केंद्रों की जांच नहीं करने देगा, जैसा कि ‘न्यू स्टार्ट’ समझौते के मुताबिक तय हुआ था। न्यू स्टार्ट अमेरिका और रूस के बीच हुई एकमात्र ऐसा परमाणु हथियार नियंत्रण समझौता है जो अब तक चल रहा है। न्यू स्टार्ट 5 फरवरी 2021 को समाप्त होने वाला था, लेकिन उससे कुछ ही दिन पहले अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति और रूसी राष्ट्रपति ने इसका नवीकरण कर दिया जिससे यह 2026 तक के लिए मान्य हो गया। उम्मीद की जा रही है कि तब तक ये दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश औऱ चीन नया हथियार नियंत्रण समझौता कर लेंगे।
अपने परमाणु हथियार भंडार तक अमेरिका को पहुंच न देने के रूसी फैसले से यह आशंका पैदा हो रही है कि दोनों देशों के बीच बचा यह आखिरी हथियार नियंत्रण समझौता भी अपने खात्मे की ओर बढ़ रहा है। यह ऐसे समय हो रहा है जब संयुक्त राष्ट्र में ‘परमाणु अप्रसार संधि’ (एनपीटी) की दसवीं समीक्षा जारी है। इस समीक्षा सम्मेलन की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने यह कहते हुए की कि ‘आज परमाणु युद्ध के लिए जरा सी चूक काफी है।
अमेरिका और रूस दोनों आज पारंपरिक हथियारों के दिनोदिन घातक होते रूप और उभरती नई-नई तकनीकों के मद्देनजर हथियार नियंत्रण और संधि प्रयासों को नाकाम और फिजूल की कवायद मानते हैं। चीन भी इसमें कोई रुचि नहीं दिखा रहा। यह बात भुला दी गई है कि सत्तर के दशक की शुरुआत यानी शीतयुद्ध के चरम वाले दौर से अब तक पिछले करीब 50 वर्षों में हथियार नियंत्रण के ही जरिए दुनिया में शांति और सुरक्षा बनाए रखी जा सकी है।
रूस की परमाणु धमकियों के साये में चल रहा यूक्रेन युद्ध, अमेरिकी प्रतिनिधिसभा स्पीकर की यात्रा के ठीक बाद ताइवान के खिलाफ चीन का जबर्दस्त शक्ति प्रदर्शन और ईरान परमाणु समझौते को लेकर अमेरिका तथा ईरान के बीच चल रही बातचीत में गतिरोध के कारण दुनिया एक खतरनाक जगह बनती जा रही है। उधर उत्तर कोरिया का भड़काऊ रवैया और परमाणु शक्ति संपन्न भारत तथा चीन और भारत तथा पाकिस्तान के बीच का तनाव तो है ही।
अब जबकि सारे परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र डिप्लोमेसी के बजाय डिटरेंस (परमाणु प्रतिरोध) पर ही भरोसा करते दिख रहे हैं तो एक चूक भर की दूरी पर मौजूद परमाणु विध्वंस की आशंकाएं और बढ़ जाती हैं। अपने परमाणु हथियारों की डिटरेंस वैल्यू बढ़ाने के लिए सभी नौ परमाणु शक्ति संपन्न देश परमाणु हथियारों का आधुनिकीकरण तेज करते जा रहे हैं। हालांकि इससे उन्हें सुरक्षा की झूठी तसल्ली ही मिल रही है।
हथियारों की मौजूदा होड़ के बीच जो बात भुला दी गई है वह यह कि डिटरेंस की बनावट में ही गड़बड़ है और इसका इतिहास नाकामियों से भरा है। चाहे सोवियत संघ और चीन के बीच 1969 में असरी नदी क्षेत्र में सात महीने चला युद्ध हो या भारतीय उपमहाद्वीप में हुए युद्ध या फिर रूसी हमले के खिलाफ समर्थन के तौर पर परमाणु संपन्न नैटो द्वारा यूक्रेन को लगातार की जा रही सप्लाई – ये सब परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों के बीच टकराव रोकने में डिटरेंस की नाकामी दर्शाते हैं।
लेकिन अगर डिटरेंस को कूटनीति और हथियार नियंत्रण संधियों का समर्थन उपलब्ध हो तो वह हमेशा सफल साबित होती है। अस्सी के दशक की शुरुआत में डिटरेंस की जरूरतों ने अमेरिका और सोवियत संघ/रूस के भंडारों में परमाणु हथियारों का जखीरा पांच अकों तक पहुंचा दिया था, लेकिन कूटनीति ने ऐसी संधियां संभव बनाईं जिनकी बदौलत हथियारों का भंडार 85 फीसदी तक कम हो गया। डिटरेंस की परिणति करीब 2000 परमाणु परीक्षणों (अंतरिक्ष में हुए 400 परीक्षणों समेत) में हुई, लेकिन यहां भी कूटनीति की जीत हुई। गौरतलब है कि सोवियत संघ ने अपना आखिरी परीक्षण अक्टूबर 1990 में किया था और अमेरिका ने सितंबर 1992 में। दुनिया ने आखिरी परीक्षण 3 सितंबर 2017 को देखा जो उत्तर कोरिया ने किया था, लेकिन यह ट्रेंड नहीं, अपवाद था।
डिटरेंस के तहत परमाणु हथियारों के सिस्टम को हमेशा ‘हाई अलर्ट’ मोड में रखने की जरूरत होती है, जबकि डिप्लोमेसी, इसके जरिए की गई संधियां और उनके तहत विकसित निगरानी प्रणालियां सुनिश्चित करती हैं कि नियंत्रण, संतुलन और निरीक्षण की विभिन्न व्यवस्थाओं के जरिए हमेशा अलर्ट मोड में रहने की जरूरत ही समाप्त हो जाए।
दिसंबर 1991 में सोवियत संघ के भंग होने के बाद नवस्थापित राज्यों में परमाणु बमों के छुपे भंडारों और उनके आतंकवादी संगठनों के हाथों में पड़ने का डर दुनिया को सताने लगा। यहां भी कूटनीति सामने आई और भयंकर तबाही की इस आशंका को समाप्त किया। यूक्रेन जैसे नवगठित राष्ट्रों को कूटनीति के जरिए रूस ने संभावित परमाणु हमले की स्थिति में सुरक्षा की गारंटी देते हुए परमाणु हथियार त्याग देने पर राजी कर लिया।
कूटनीति ने ऐसी संधियों को जन्म दिया जिनकी बदौलत परमाणु प्रसार, रासायनिक और जैविक हथियार, बारूदी सुरंगों के इस्तेमाल और अंतरिक्ष सैन्यीकरण पर रोक लगाई जा सकी। इसी ने परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों द्वारा परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण इस्तेमाल के लिए गैरपरमाणु राष्ट्रों के साथ परमाणु तकनीक साझा किया जाना भी संभव बनाया। कुल मिलाकर, इसके प्रयासों से दुनिया पहले के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित जगह बनी।
हालांकि कुछ अपवाद हैं। उत्तर कोरिया का 2017 में परमाणु परीक्षण करना और हाल में रूस का यूक्रेन को परमाणु धौंस दिखाना वास्तव में सीटीबीटी और एनपीटी द्वारा तय किए गए मानदंडों के उल्लंघन के उदाहरण हैं। लेकिन मोटे तौर पर इन मानदंडों का पालन होता रहा है और यह दोहराना उपयुक्त होगा कि ये मानदंड डिटरेंस द्वारा नहीं बल्कि डिप्लोमेसी द्वारा बनाए गए। बहरहाल, इतिहास से जल्दी ही परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों को यह सीख मिल जाएगी कि तय मानदंडों का उल्लंघन भारी पड़ता है। उन्हें यह बात समझ में आ जाएगी कि डिटरेंस चूक की आशंका को बढ़ाता है, डिप्लोमेसी इसे कम करती है। उम्मीद है कि यह अक्ल उन्हें परमाणु संकट के बाद नहीं आएगी जैसा कि अमेरिका और सोवियत संघ के साथ अक्टूबर 1962 के क्यूबाई संकट के मामले में हुआ था।
उम्मीद करें कि केनेडी, ख्रुश्चेव, रीगन, गोर्बाचेव और उनके पूर्ववर्तियों की ही तरह परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों के मौजूदा नेतृत्व को भी इस बात का अहसास हो जाएगा कि परमाणु युद्ध जीते नहीं जा सकते, इसलिए कभी लड़े ही नहीं जाने चाहिए। पी-5 देशों (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों) ने 6 जनवरी 2022 को यही बात दोहराई थी, लेकिन जिस तरह वे अपने परमाणु भंडारों का आधुनिकीकरण करने में लगे हैं और यूक्रेन तथा ताइवान को लेकर जिस तरह के टकरावपूर्ण हालात बने, उससे भरोसा नहीं बनता।
परमाणु देशों में या कम से कम पी 5 देशों में भी डिप्लोमेसी का नवीकरण हो जाए तो मौजूदा संधियों के आधार पर परमाणु हथियारों के नियंत्रण की दिशा में काम शुरू हो सकता है। 1967 की आउटर स्पेस ट्रीटी (बाह्य अंतरिक्ष संधि), 1970 की एनपीटी, 1971 की सीबेड आर्म्स कंट्रोल ट्रीटी, 1972 का बायो वेपंस कन्वेंशन, 1987 का एमटीसीआर, 1996 की सीटीबीटी, 1993 का केमिकल वेपंस कन्वेंशन (रासायनिक हथियार कन्वेंशन), 2008 का कन्वेंशन ऑन क्लस्टर म्यूनिशंस (क्लस्टर बमों को रखने, बेचने या इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी गई थी), 2002 का इंटरनैशनल कोड ऑफ कंडक्ट अगेंस्ट बैलिस्टिक मिसाइल्स प्रोलिफरेशन (आईसीओसी- बैलिस्टिक मिसाइल और उनके वितरण को नियंत्रित करने वाले समझौते), 1997 की माइन बैन ट्रीटी- ये कुछ ऐसे समझौते हैं जो इन प्रयासों को मजबूती दे सकते हैं और जरूरत के मुताबिक नए प्रयासों की राह भी आसान बना सकते हैं, खासकर अंतरिक्ष सैन्यीकरण और उभरती तकनीकों के सैन्य इस्तेमाल जैसे क्षेत्रों में। मौजूदा संधियों की उपयोगिता और दीर्घजीविता अपने आप में इस बात का सबूत है कि दुनिया को सुरक्षित बनाने में डिप्लोमेसी की कितनी अहम भूमिका होती है।
भविष्य की वार्ताओं में पी 5 देशों को इस तथ्य पर पर्याप्त ध्यान देना होगा कि 9 अगस्त 1944 के बाद हुए युद्धों में परमाणु हथियारों का इस्तेमाल नहीं हुआ और पी 5 देशों द्वारा किया गया आखिरी परीक्षण 1992 में ही हुआ था। ये दो आश्वस्तकारी तथ्य उन्हें अपने मतभेद पाटने और नई टिकाऊ संधि करने का संबल देंगे। तीसरा अहम फैक्टर है एनपीटी जिसने सफलतापूर्वक परमाणु हथियारों का प्रसार रोका। आज तक सिर्फ चार ही नए देश हैं जो परमाणु राष्ट्रों के क्लब में आ सके।
पी 5 पुरानी संधियों को आवश्यक सुधारों के साथ पुनर्जीवित भी कर सकते हैं। इस सिलसिले में एंटी बैलिस्टिक मिसाइल्स ट्रीटी 1972 (एबीएम), आईएनएफ और ‘ओपन स्काइज’ पर विचार किया जा सकता है।
न्यू स्टार्ट पर संदेह के बादल घिरने से ऐसी आशंका बनने लगी है कि सत्तर के दशक के बाद दुनिया में पहली बार ऐसी स्थिति होगी जब कोई भी हथियार नियंत्रण संधि न हो। तुरंत कोई नई संधि होने के आसार भी नहीं दिख रहे। आगे चलकर हो सकता है अमेरिका, रूस और चीन के बीच त्रिपक्षीय समझौता हो जाए। ऐसे में तात्कालिक जरूरत यह सुनिश्चित करने की है कि मौजूदा संधियों के मानदंडों का उल्लंघन न हो।
अगर हथियार नियंत्रण संधियां नहीं होने जा रहीं तो भी परमाणु हथियारों की होड़ रोकने वाले मानक मजबूत किए जाएं और सामयिक बना दिए जाएं तो ये मौजूदा परमाणु शक्ति संपन्न या नवाकांक्षी राष्ट्रों के दुस्साहस पर अंकुश लगा सकते हैं। हथियार नियंत्रण संधियों के मुकाबले मानकों या मानदंडों को विस्तार देना आसान है। सभी देशों को मात्र तीन मानदंडों – इस्तेमाल नहीं करना, परीक्षण नहीं करना, प्रसार नहीं करना- को मानने के लिए भी तैयार कर लिया जाए तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।
अमेरिका मानदंडों को मजबूती देने की प्रक्रिया की शुरुआत सीटीबीटी पर दस्तखत से कर सकता है। इसका प्रभाव इस रूप में सामने आ सकता है कि चीन, भारत, पाकिस्तान संधि पर हस्ताक्षर कर दें। इसके बाद कोई देश या नेता परीक्षण करता है तो उसे बदनामी के साथ जीना होगा।
आगे बढ़ने के लिए हथियार नियंत्रण संबंधी विचार-विमर्श में पी 5 प्लस भारत, पाकिस्तान को शामिल किया जाना चाहिए। उत्तर कोरिया और इजरायल को शामिल करना ठीक नहीं होगा क्योंकि उनको शामिल करने से नुकसान ज्यादा होगा, फायदा कम।
सात देशों की वार्ता को परमाणु जोखिम घटाने और मानक बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। द्विपक्षीय मुद्दे उठाने पर रोक होनी चाहिए या अगर उठाए भी जाएं तो वे साइडलाइन का ही अजेंडा रहें। सबसे पहले इन सातों देशों को रीगन-गोर्बाचेव के इस सिद्धांत की दोबारा पुष्टि करनी चाहिए कि परमाणु युद्ध जीते नहीं जा सकते और लड़े नही जाने चाहिए।
अगर हथियार नियंत्रण पर बातचीत रुक भी जाती है तो मानकों को मजबूत करने, मौजूदा परमाणु हथियारों तथा उनके आधुनिकीकरण पर ज्यादा नियंत्रण और संतुलन लागू करने को लेकर बातचीत आगे बढ़नी चाहिए।
जहां अमेरिका और रूस के पास परमाणु हथियारों का जखीरा चार अंकों में है वहीं अन्य देशों के पास तीन अंकों में। अगर अमेरिका और रूस अपने हथियारों की संख्या में अच्छी खासी कटौती करने को तैयार नहीं होते और अन्य पांच देश अपने भंडार स्थिर रखने पर सहमत नहीं होते तो बातचीत अटक जाएगी।
सात देशों की बातचीत प्रस्तावित होने की स्थिति में कोई भी देश इसमें शामिल होने से इनकार नहीं कर पाएगा क्योंकि मौजूदा समीक्षा के दौरान एनपीटी को मिलने वाली ताकत के बाद ऐसे देश कार्रवाई के दायरे में आ जाएंगे।
दुनिया में जो परमाणु शांति बनी रही, संभव है कुछ देश अब उसे सामान्य बात मानने लगे हों, क्योंकि अब कई सारे परमाणु राष्ट्रों के परमाणु हथियार गैर-सामरिक हो गए हैं। लेकिन इसका गैर सामरिक चरित्र इस बात की गारंटी नहीं है कि किसी दुश्मन देश की प्रतिक्रिया समान स्तर की होगी। युद्ध में एक बार परमाणु सीमा टूट गई तो उसके बाद भले गैर सामरिक स्तर की हो, प्रतिक्रिया तो तीव्र ही होगी। यह तीव्रता अगर किसी बात की गारंटी हो सकती है तो वह है परस्पर सहमति से विनाश यानी Mutual Assured Destruction (MAD)।
शीत युद्ध के दौर में दुनिया ने अनेकानेक हथियार नियंत्रण संधियां देखीं, उन संधियों से बनते मानक देखे, उन मानकों पर भली-भांति अमल होते देखा। आज शीत युद्ध से ज्यादा खतरनाक स्थिति है। परमाणु शांति भले भंग न हुई हो, लेकिन आखिरी हथियार नियंत्रण संधि भी खतरे में है। एक बार फिर ऐसे भविष्य के लिए काम करने का वक्त आ गया है जिसमें परमाणु शांति भंग करना आसान न हो। डिप्लोमेसी ही इस लक्ष्य तक ले जा सकती है।
कर्नल आर एन घोष दस्तीदार (रिटायर्ड)
लेखक परिचय
कर्नल आर एन घोष दस्तीदार (रिटायर्ड) जियो पॉलिटिक्स के जानकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं