संपादक की टिप्पणी
एक अच्छे-खासे अंतराल के बाद नए सीडीएस की नियुक्ति की गई। वह भी उसी अधिकारपत्र का अनुसरण करने वाले हैं जो उनके पूर्ववर्ती के लिए तैयार किया गया था। इसके साथ यह दिक्कत रही है कि इसने जिम्मेदारियों का दायरा इतना विस्तृत कर दिया है कि थिएटराइजेशन के मूल लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखना नामुमकिन जैसा हो गया है। आवश्यक स्टाफ सपोर्ट की व्यवस्था किए बगैर सीडीएस के कंधे पर अन्य जिम्मेदारियां डाल दी गई हैं। प्रस्तुत लेख में इससे जुड़े कुछ बेहद अहम मसलों पर विचार किया गया है।
…………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
पिछले दिसंबर में तत्कालीन चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत की हेलिकॉप्टर दुर्घटना में हुई दुखद मौत के कुछ महीने बीत जाने के बाद 30 सितंबर को जनरल अनिल चौहान को दूसरे सीडीएस के रूप में नियुक्त किया गया। इस वृहत अंतराल के दौरान जो कयासबाजियां चलीं उनमें एक यह भी थी कि सीडीएस पद पर नई नियुक्ति करने से पहले सरकार इसकी जिम्मेदारियों और कार्यक्षेत्रों को ज्यादा सटीकता के साथ पुनर्परिभाषित करने का काम कर रही है। खासकर इस पद के ऑपेरशनल रोल के बरक्स उसकी सलाहकारी भूमिका पर ध्यान दिया जा रहा है।
पीछे मुड़कर देखें तो साफ हो जाता है कि ऐसे किसी अनुमान का कोई आधार नहीं था। सरकार ने सीडीएस के कार्यों तथा जिम्मेदारियों में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं किया है। इसका मतलब यह है कि जनरल चौहान उन सभी 11 कार्यों के लिए जिम्मेदार होंगे जो जनरल रावत की सीडीएस पद पर 1 जनवरी 2020 को हुई नियुक्ति के ठीक बाद फरवरी 2020 में जारी आधिकारिक प्रेस रिलीज में गिनाए गए थे।
संक्षेप में कहा जाए तो रक्षा मामलों के विभाग (डीएमए) का सचिव होने के अलावा जनरल चौहान सभी तीनों सेनाओं से जुड़े मामलों में रक्षा मंत्री के प्रमुख सैन्य सलाहकार भी होंगे, चीफ्स ऑफ स्टाफ कमिटी के स्थायी प्रमुख के रूप में भी काम करेंगे, अंडमान और निकोबार कमांड सहित ट्राइ-सर्विस संगठनों का प्रशासन भी देखेंगे और न्यूक्लियर कमांड अथॉरिटी को सैन्य सलाह भी देंगे।
ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि कामकाज का यह दायरा कोई बहुत बड़ा नहीं है और इसे संभाला जा सकता है, लेकिन करीब से एक नजर डालने भर से स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा नहीं है। सीडीएस पद को सौंपी गई जिम्मेदारियां इतनी विस्तृत और जटिल हैं कि किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं संभाली जा सकतीं, खासकर तब जब उसे उपयुक्त सपोर्ट सिस्टम भी उपलब्ध न कराया गया हो। सच यह भी है कि सीडीएस के जिम्मे सौंपे गए कुछ कार्य ऐसे हैं जो उसकी अन्य प्रमुख जिम्मेदारियों से मेल नहीं खाते।
यह बेहद अहम है कि कम से कम अगले कुछ साल सीडीएस सशस्त्र सेनाओं की पुनर्संरचना के काम को पर्याप्त समय दें जो कि मौजूदा सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता के रूप में देखा जा रहा है। मौजूदा 17 कमांड – स्थल सेना और वायु सेना की सात-सात और भारतीय नौसेना की तीन कमांड- को तीन या चार थिएटर कमांड के रूप में नया आकार देना ऐसा काम है जो सीडीएस से काफी समय, ऊर्जा, संसाधन और समझदारी की अपेक्षा रखेगा।
साथ ही उसे डिफेंस स्पेस एजेंसी, डिफेंस सायबर एजेंसी, स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप जैसे ट्राइ-सर्विस संगठनों के कामकाज को भी स्थिरता देना होगा। हाल के वर्षों में गठित ये संगठन अभी शुरुआती चरण में हैं।
थिएटराइजेशन के विभिन्न पहलुओं से जुड़े कई जटिल मसले ऐसे हैं जो पिछले दो दशकों से अनसुलझे पड़े हैं। तीनों सेनाओं की प्रस्तावित एकीकरण योजनाओं से जुड़े कुछ पहलुओं पर भारतीय वायुसेना की दशकों पुरानी ‘आपत्तियों’ का वायुसेना दिवस के चार दिन पहले 4 अक्टूबर को प्रेस कॉन्फ्रेंस में एयर चीफ मार्शल वी आर चौधरी द्वारा दोहराया जाना भी सीडीएस के सामने मौजूद चुनौतियों का एक उदाहरण है। ऐसे ही कई अन्य मसले (जैसे कि तीसरे एयरक्राफ्ट कैरियर की जरूरत) पुराने और जटिल मुद्दो की सूची में जोड़े जा सकते हैं।
विभिन्न विभागों के प्रमुख रोजमर्रा के कामकाज से इस कदर लदे होते हैं- जब विभिन्न कार्यक्रमों को संबोधित न कर रहे हों तो पेपरवर्क करते हुए, अंतहीन बैठकें निपटाते हुए और मंत्रियों को विभिन्न विषयों पर ‘सलाह’ देते हुए – कि नीतिगत मसलों पर अलग-अलग तबकों के लोगों से विचारोत्तेजक बातचीत करने का मौका मुश्किल से ही निकाल पाते हैं। नतीजा यह कि ऐसे विचार-विमर्श प्रायः विभागों के केबिनों तक सीमित रह जाते हैं। आश्चर्य नहीं कि बहुत से नीतिगत फैसले क्रियान्वयन का खाका तैयार किए बगैर और नतीजों पर ढंग से विचार किए बगैर ही ले लिए जाते हैं।
एक साथ कई सचिविक (सेक्रेटेरियल), सलाहकारी और वैचारिक भूमिकाएं निभाते हुए उन सबके साथ न्याय करना सीडीएस के लिए खासा मुश्किल साबित होगा। इससे मिलता-जुलता उदाहरण डिफेंस रिसर्च एंड डिवेलपमेंट विभाग के सचिव का है जो डिफेंस रिसर्च एंड डिवेलपमेंट ऑर्गनाइजेशन के चेयरमैन की भी जिम्मेदारी संभालते थे और रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार भी होते थे। रक्षा विश्लेषकों ने इस बेढंगी व्यवस्था के लिए सरकार की इतनी लानत मलामत की और लगातार करते रहे कि आखिर उसे वैज्ञानिक सलाहकार के पद को उन दोनों कार्यकारी जिम्मेदारियों से अलग करना पड़ा।
सीडीएस के कार्यक्षेत्र की व्यापकता इस वजह से भी चिंताजनक है कि उसे तत्काल कुछ अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान देना होगा। उदाहरण के लिए जल्दबाजी में लाई गई अग्निपथ स्कीम के नतीजों से निपटने पर। वेतन, पेंशन और प्रमोशन से जुड़े तमाम मसले तो बचे ही हैं निपटाने को, सेनाओं के एकीकरण के जरिए इन्फ्रास्ट्रक्चर के अधिकतम संभव उपयोग का सवाल भी है जिस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।
सशस्त्र सेनाओं का पुनर्गठन और इससे जुड़े तमाम मुद्दों से निपटना अपने आप में एक पूर्णकालिक जिम्मेदारी होने वाली है जिससे सीडीएस के लिए सिर पर आई बाकी जिम्मेदारियों के लिए वक्त निकालना मुश्किल होगा। कम से कम दो अतिरिक्त जिम्मेदारियां ऐसी हैं जो सीडीएस में निहित शक्ति और उसे उपलब्ध इंस्टिट्यूशनल सपोर्ट को देखते हुए उपयुक्त नहीं लग रहीं।
पहली, डीएमए की जिम्मेदारियों में एक यह भी है कि तीनों सेनाओं में स्वदेशी उपकरणों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाए। विभाग के सेक्रेटरी के नाते यह सीडीएस की जिम्मेदारी हो गई है। लेकिन इस बात पर बहस हो सकती है कि यह जिम्मेदारी उस पर डालना सही है या नहीं। सैन्य हितों का रक्षक होने के नाते उसकी पहली जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करने की है कि सशस्त्र सेनाओं को सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध हथियारों से लैस किया जाए चाहे वे कहीं के भी बने हों। भारतीय उद्योगों को अपनी क्षमता विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करने का काम डिफेंस प्रोडक्शन विभाग पर छोड़ा जा सकता है।
दूसरी, सीडीएस को सौंपी गई जिम्मेदारियों में एक ‘इंटीग्रेटेड कपैबिलिटी डिवेलपमेंट प्लान’ के फॉलो-अप के रूप में ‘फाइव-ईयर डिफेंस कैपिटल एक्विजिशन प्लान एंड टू-ईयर रोल-ऑन ऐनुअल एक्विजिशन प्लांस’ पर अमल करना भी है। इन योजनाओं को एक साथ लाने की जिम्मेदारी हेडक्वार्टर इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ (एचक्यू आईडीएस) की होती है जो अब डीएमए के प्रशासनिक नियंत्रण में है। नतीजतन, योजना बनाना भी सीडीएस की जिम्मेदारी हो गई है।
अनुभव बताता है कि भांति-भांति की जिम्मेदारियां संभाल रहा एचक्यू आईडीएस व्यावहारिक रक्षा योजनाएं तैयार करने की स्थिति में नहीं होता। डिफेंस प्लानिंग अपने आप में एक पूर्णकालिक जिम्मेदारी है और इसका कुशल निर्वहन स्थायी डिफेंस प्लानिंग बोर्ड जैसा कोई प्रतिबद्ध संगठन ही कर सकता है। 2008 में रक्षा खर्च समीक्षा समिति द्वारा प्रस्तुत किए गए इस सुझाव पर विचार करने की जरूरत है क्योंकि वित्तीय तौर पर व्यावहारिक रक्षा योजनाओं के बगैर सेना के आधुनिकीकरण का कार्य गति नहीं पकड़ सकता।
सीडीएस से यह अपेक्षा करना तर्कसंगत नहीं है कि वह ‘अनुमानित बजट पर आधारित पूंजी अधिग्रहण प्रस्तावों को लेकर विभिन्न सेनाओं की प्राथमिकताओं’ की झलक देने वाली योजनाओं की तैयारियों पर नजर रखे और साथ ही इनके क्रियान्वयन पर भी ध्यान दे। अगर सीडीएस किसी तरह से विभिन्न सेनाओं के प्राथमिकीकरण का काम देख लेता है तो भी वह प्राथमिकता में आए हथियारों, उपकरणों और अन्य क्षमताओं का अधिग्रहण सुनिश्चित नहीं कर सकता क्योंकि अधिग्रहण संरचनाओं और जटिल खरीदी प्रक्रियाओं पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता।
रक्षा योजना की ही तरह अधिग्रहण (एक्विजिशन) भी एक पूर्णकालिक दायित्व है। इसके लिए डिफेंस कपैबिलिटी एक्विजिशन ऑर्गनाइजेशन जैसे समर्पित संगठन चाहिए जैसा कि 2016 में रक्षा मंत्रालय द्वारा गठित एक समिति ने कहा भी था जिसकी रिपोर्ट पता नहीं क्यों, भुला ही दी गई।
अंतिम बात यह कि रक्षा योजनाएं तैयार करना और विभिन्न सेनाओं के प्राथमिकीकरण तथा प्राथमिकीकृत क्षमताओं के वास्तविक अधिग्रहण पर आधारित एकीकृत क्षमता विकास योजना बनाना सीडीएस या किसी भी ऐसे व्यक्ति या संगठन के लिए खासा चुनौतीपूर्ण होगा जिस पर स्थायी वित्तीय मजबूरियों के बीच यह जिम्मेदारी लाद दी गई हो।
रक्षा मंत्रालय द्वारा 13वें वित्त आयोग को मुहैया कराई गई सूचनाओं के मुताबिक सशस्त्र सेनाओं की जरूरत और बजटीय आवंटन के बीच का अंतर अगले तीन वित्त वर्ष (2023-26) के दौरान 9,87,470 करोड़ रुपये हो जाएगा जिसमें से 5,27,491 करोड़ रुपये पूंजी अधिग्रहण के होंगे। यह अंतर दो लाख से भी कम वाले प्रस्तावित आधुनिकीकरण कोष से नहीं पाटा जा सकेगा। समझना मुश्किल है कि कोई सीडीएस इस समस्या से कैसे पार पा सकता है। लेकिन यह बिलकुल अलग मसला है, जिस पर फिर कभी।
अमित कौशिश