संपादक की टिप्पणी
यह कहानी है 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान बटालिक सबसेक्टर स्थित जुबार हिल को दुश्मन के कब्जे से छुड़ाने के लिए हुई लड़ाई की। 212 रॉकेट रेजिमेंट के 122 एमएम मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर्स (एमबीआरएल) ट्रुप ने इस जबर्दस्त हमले का बीड़ा उठा रखा था। ऑपरेशन 5/6 जुलाई 1999 की दरमियानी रात को शुरू हुआ। लेखक इन रॉकेट लॉन्चर्स की कमान संभाले हुए थे। वह यहां उस हमले की योजना तैयार करने और उसे अमल में लाने का अपना अनुभव साझा कर रहे हैं। 122 एमएम एमबीआरएल के हर लॉन्चर में 40 बैरल होते हैं। लॉन्चर्स के एक ट्रुप में तीन एमबीआरएल होते हैं।
………………………………………………………………………………………………………………………..
शुरुआत
वह 1999 के जुलाई महीने के आखिर की कोई शाम थी, युद्ध क्षेत्र द्रास सेक्टर की। श्रीनगर-लेह नैशनल हाईवे की निगरानी करने वाली तोलोलिंग चोटी को पाकिस्तानी घुसपैठियों के कब्जे से मुक्त करा लिया गया था, हालांकि इसके लिए कई जिदंगियां कुर्बान करनी पड़ी थीं। लड़ाई के अगले चरण की योजना बनाई जा रही थी।
122 एमएम रशन मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर सिस्टम एमबीआरएल ग्रैड बीएम 21 के बैटरी कमांडर के रूप में मैं अपनी फोर्स को मई 1999 के आखिर में दिल्ली से युद्ध क्षेत्र (करीब 1000 किलोमीटर) ले आया था और बैटरी (तोपखाने) को निरंतर लड़ाई में झोंके हुए था।
एमबीआरएल सिस्टम हालांकि 1971 की लड़ाई के बाद भारतीय तोपखाने में शामिल किया गया था, लेकिन कागिल युद्ध में 2122 रॉकेट बैटरी के ऑपरेशंस के जरिए उसकी परख हो चुकी थी। इस सबयुनिट (212 रॉकेट रेजिमेंट के हिस्से के रूप में) ने द्रास/कारगिल/मशकोह/बटालिक सेक्टरों में इन्फैंट्री को सपोर्ट देने के लिए जबर्दस्त गोलाबारी की और इस तरह भारतीय चौकियों को चोरी छुपे कब्जा किए बैठे पाकिस्तानियों के चंगुल से मुक्त कराने की प्रक्रिया आगे बढ़ाने में मदद की।
2 जून 1999 से 19 जुलाई 1999 के बीच मेरी फोर्स ने 2450 से ज्यादा रॉकेट दागे। जिस चीज ने इस सबयुनिट को सबकी आंखों का तारा बना दिया था, वह थी दुश्मन खेमे में सदमे की लहर पैदा करने की इसकी क्षमता। यह सबयुनिट न केवल अपनी सेना का मनोबल चार गुना करती बल्कि दुश्मनों के मन में मौत का खौफ बैठाकर उनके संकल्प को चूर-चूर कर देती थी।
रॉकेट लॉन्चर सिस्टम के छह यूरल ट्रक मजबूत, फुर्तीले, खतरनाक जानवर की तरह थे। वे जब लदे हों तब भी रास्ते के गड्ढों, दरारों को जैसे निगलते चलते थे और 38 डिग्री तक के उतार-चढ़ावों पर आसानी से बढ़ते जाते थे। उनके ताकतवर वी8 अल्युमिनियम 93 एमटी पेट्रोल इंजन उनमें धीरे-धीरे ऊर्जा का संचार करते हुए उन्हें ऐसे जंगली बिल्लों में तब्दील कर देते थे जो फायरिंग पोजिशंस के अंदर और बाहर आसानी से यूं आते-जाते रहते मानों स्पोर्ट्स कार हों।
बिलकुल तय समय के मुताबिक मॉबिलिटी, फायरिंग, लोडिंग और दोबारा तैनाती की क्षमता की बदौलत हमने कम से कम समय में मल्टिपल टारगेट्स पर भारी मात्रा में गोले बरसाते हुए नए मानदंड कायम किए। कई मौकों पर ट्रुप्स को अलग अलग हिस्सों में बांटकर जगहें बदलते हुए हमने एक साथ चार-चार टारगेट्स को उलझाए रखा। अंग्रेजी मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कहें तो हम वाकई हॉर्समेन ऑफ द अपाकलिप्स (कयामत के घुड़सवार) थे।
मिशन
जब मैं द्रास में था, तभी 3 जुलाई 1999 को जुबार हिल पर फिर से कब्जा करने की जिम्मेदारी उठाने वाले 1 बिहार को फायर पावर सपोर्ट देने के लिए एक ट्रुप तैनात करने का आदेश मिला। होटल आवर (एच आवर यानी वह पल जब हमला शुरू कर देना होता है) बमुश्किल 46 घंटे दूर था।
हमें द्रास से कारगिल फायर कंट्रोल सेंटर (एच माइनस 44) जाना था। द्रास स्थित हमारे गुप्त ठिकाने से कारगिल जीरो पॉइंट की दूरी थी 70 किलोमीटर। ऑर्डर मिलने के दो घंटे के अंदर हम तीन लोडेड लॉन्चर्स और एक अतिरिक्त 240 रॉकेट्स लेकर पांच लॉजिस्टिक्स वाहनों के साथ निकल पड़े। लाइन केबल, फील्ड टेलीफोन एक्सचेंज, रेडियो सेट्स के लिए बैटरी, बूस्टर एंटीना, जेनरेटर्स, अतिरिक्त ईंधन और करीब 40 लोगों के लिए एक छोटा सा कुक हाउस जैसे बेहद जरूरी सामानों के साथ तीन ट्रक हमारे साथ चल रहे थे। कुल नौ वाहनों का हमारा कारवां था जिसमें मेरा जोंगा भी शामिल था।
बीच-बीच में होती गोलीबारी, हाईवे के अवशेषों के बीच उबड़खाबड़ गड्ढे भरे रास्ते, दूसरी तरफ से आता हेवी ट्रैफिक… इन सबके बीच अंधेरे में जोखिम भरे नौ घंटे का सफर तय करके हम पहुंचे।
ब्रीफिंग (एच माइनस 35)
अगले दिन सुबह की पहली किरण आने के तीन घंटे बाद 3 डिविजन के आर्टिलरी ब्रिगेड कमांडर ने ब्लैक टी शेयर करते हुए यह निर्देश दिया- ‘पीटर, मुझ पर एक एहसान करो, प्लीज! जुबार पर बैठे दुश्मनों पर गोले बरसाते हुए वहां अंधेरा फैला दो।’
हमारी गोलीबारी पारंपरिक फायर प्लान का हिस्सा नहीं थी, बल्कि ये गोलियां तय समय के अंदर बरसानी थीं (तीन लॉन्चर्स से 40 रॉकेट वाले तीन-तीन धमाके- यानी कुल 360 रॉकेट्स)
सबसे करीब का उपयुक्त गन एरिया 29 किलोमीटर दूर हमोटिंगला दर्रे में था जो समुद्र तल से 14000 फीट की ऊंचाई पर है। ब्रिगेड हेडक्वार्टरर्स के स्टाफ ने मुझे दुश्मन के व्यवहार/ तैनाती/ तोपखानों की स्थिति / फायर रेंज/ और मेरे ट्रुप की सुरक्षा से जुड़े डीटेल्स जैसे अपनी सैन्य टुकड़ियों की फ्रंट लाइन, लॉजिस्टिक्स, मेडिकल सुविधा आदि की जानकारी दी।
अब रोमांच प्रत्यक्ष नजर आ रहा था। पिछली लड़ाइयों में 8 डिविजन सेक्टर में रॉकेट बैटरी ने जो तबाही मचाई थी, उसकी खबर पहले ही सेक्टर में पहुंच चुकी थी। दुश्मन के कम्यूनिकेशन पर निगरानी रखने वाले हमारे सिस्टम ने उनके जो रेडियो संदेश पकड़े उनमें रॉकेट हमलों का डर झलक रहा था।
शाम होने के बाद हम लोग तैनाती की तय जगह के लिए निकले। पिछली रात के बरक्स इस बार मामला ज्यादा खतरनाक साबित हुआ। अचानक गोले बरसने लगे। और वे हमारे आसपास गिर रहे थे। लेकिन हमारे ड्राइवर बिना घबराए, शांति और दक्षता के साथ अंधेरे में बढ़ते रहे। 5 जून 1999 को सुबह की पहली किरण के साथ हम हमोटिंगला दर्रा पहुंच चुके थे। प्रसंगवश, हमोटिंगला में एक एक तरफ दो मीडियम गन (एक्स 286 मीडियम रेजिमेंट) भी तैनात थे जिनके स्किपर थे कैप्टन कार्णिक। उनकी टीम ने लॉन्चर्स लोड करने में हमारी मदद की। उनका सपोर्ट न होता तो गोलीबारी के बीच का अंतराल बढ़ जाता।
तैयारियां (एच आवर माइनस 13)
हमोटिंगला दर्रे का सपाट प्लिंथ गन पोजिशन ऑफिसर के लिए बड़ा सुविधाजनक था। ऐसा लगता था मानो कुदरत ने हमारे लॉन्चर्स की पोजिशन के लिए ही वह प्लिंथ बना रखा था। एक बड़ी चुनौती यह थी कि टेक्निकल रेंज टेबल 10000 फीट तक के लिए था, जबकि हम 14000 फीट की ऊंचाई पर थे। लेकिन मेरे टेक्निकल स्टाफ की दक्षता के सामने यह कोई बड़ी बाधा नहीं साबित हुई। मौसम संबंधी आंकड़े उपलब्ध नहीं थे, इसलिए हमने रफ एंड रेडी मेथड से करेक्टर ऑफ द मोमेंट तैयार कर लिया ताकि मौसम की अनिश्चितताओं के बावजूद एंगेंजमेंट एक्युरेसी बरकरार रखी जा सके।
जुबार पर हमारा टारगेट थे चोटी की मेड़ पर और संभावित रास्तों पर बने बंकर। विजुअल ऑब्जर्वेशन मेरे लिए मुश्किल था क्योंकि मेरे लोकेशन से जुबार तक की दूरी 11 किलोमीटर थी। अच्छी बात यह थी कि दोपहर से पहले का सूरज मेरे पीछे था, और एय़र ऑब्जर्वेशन पायलट के रूप में हासिल किया हुआ मेरा स्किल काम आया। सेक्टर एंकर ओपी (ऑब्जर्वेशन पोस्ट), जो टारगेट के करीब था, उससे भी मदद मिली। रेडियो पर उसके साथ मैंने अपने निष्कर्षों को क्रॉसचेक किया। एंकर ओपी ने शॉट को गिरते देखकर भी मुझे करेक्शंस सुझाए ताकि अधिकाधिक सटीकता सुनिश्चित की जा सके। हमें सामान्य तौर पर उस इलाके को निशाना बनाना था, किसी खास निशाने पर शूट नहीं करना था। यह काम गन्स का होता है रॉकेट्स का नहीं।
आखिरी पलों में तकनीकी पहलुओं पर फिर से नजर दौड़ाने के बाद हमने रॉकेट्स पर ब्रेक रिंग लगाने का फैसला किया ताकि टारगेट पर गोलों का दबाव और ज्यादा बढ़ाया जा सके। तत्काल विस्फोट के साथ-साथ शॉर्ट डिले और डिलेड एक्टिवेशन भी सुनिश्चित करने के लिए फ्यूजों को मिला-जुला रखा गया था। तीनों लॉन्चर्स के सभी 120 ट्यूबों के लिए ट्यूब लॉक असेंबली को 600/800 की लिमिट में और केजी/सीएम 2 प्रेशर पर रखा गया था ताकि शॉट अधिक से अधिक सटीक और केंद्रित रूप में गिरे।
उलटी गिनती (एच माइनस 01)
गिनती शुरू करने का समय आ गया था। तीन लॉन्चर्स में 120 रॉकेट लोड किए जा चुके थे और 176 अन्य एम्युनेशन कैरियर्स में तैयार थे। ऑटोमैटिक मोड में 120 रॉकेट्स का मतलब था 20 सेकंड के अंदर जुबार पर 5.4 टन एम्युनेशन का गिरना।
तो, ‘कयामत के घुड़सवारों’ का नृत्य शुरू हो चुका था।
होटल आवर (एच)
‘कयामत के नृत्य’ से पहले मैंने जो सांकेतिक संवाद किया था, उसकी स्मृति अब मेरे डीएनए का हिस्सा बन चुकी है। रेडियो कम्यूनिकेशन इस तरह हुआ थाः
- यू 101 टु यू 103 अल्फा, बैट्ल स्टेशंस- लॉन्चर्स (अल्फा 1/ ब्रैवो 1/ ब्रैवो 2)
- ट्रुप रिपोर्ट रेडी.
- यू 103 अल्फा रेडी; एकनॉलेज्ड द ट्रुप लीडर सूबेदार अर्जन सिंह
- जीपीओ (गन पोजिशन ऑफिसर) कन्फर्म रेडी. एनबी सब एआईजी दत्ता की ओर से हां में जवाब आया.
- यू 101 टु यू 103 अल्फा – स्टैंडबाइ. एकनॉलेज्ड.
- यू 101 टु यू 103 अल्फा फायर. – फायर्ड ऑन युनिफॉर्म टारगेट…
लॉग द टाइम एट 1951 आवर्स
120 रॉकेट्स 2520 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से (2 मैच से ऊपर की रफ्तार) अपने ट्यूब से निकले… धधकते हुए, हवा में करीब 1000 मीटर तक आग की लकीर के निशान छोड़ते हुए। अपनी उड़ान के पावर्ड फेज के बाद वे करीब 15000 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से गिरते हुए जुबार हिल पहुंचे।
दस सेकंड बाद, 120 रॉकेट एक साथ फटे और दुश्मन खेमे को चीरते, फाड़ते, उधेड़ते, जलाते, ध्वस्त करते, जो कुछ भी वहां था, उसे तहस-नहस कर डाला। अन्य शक्तिशाली बंदूकों ने भी वहां पहले से ही तबाही मचा रखी थी।
हमने रीलोड किया और 55 मिनट में यही कवायद दोहराई- फिर 5.5 टन, 56 बार। रॉकेट ट्यूब पेंट ने आग पकड़ ली। सारे लॉन्चर्स धुएं से काले पड़ चुके थे, लेकिन विजेता थे।
उपसंहार
थकान से चूर और उत्साह से भरपूर, मैंने सेना के अनुशासन की औपचारिकता को दरकिनार करते हुए सूबेदार अर्जन सिंह और एनबी सूबेदार दत्ता – सीनियर जेसीओ और जीपीओ- के साथ रम का छोटा सा पैग शेयर किया। उनके बगैर मैं इस मिशन इम्पॉसिबल को पूरा नहीं कर सकता था।
आश्चर्य नहीं कि गनर्स के गोल, चपटे बैज पर अंकित होता है- ‘सर्वत्र इज्जत-ओ-इकबाल’।
लेफ्टिनेंट कर्नल सदा पीटर, (रिटायर्ड) गनर एविएटर