युद्ध का भगवान होता है तोपखाना
– जोसफ स्टालिन
द्रास का कारगिल वॉर मेमोरियल अलौकिक सौंदर्य और सम्मान का स्मारक है जिसे पूरे सम्मान के साथ सोचा, तैयार किया और बनाया गया है। कब्र के हरेक पत्थर की अपनी अनूठी कहानी है। मुख्य समाधि पर अंकित है, ‘यहां कुछ युवा योद्धा सोए हैं’। मेमोरियल के बीचो-बीच तोलोलिंग की पृष्ठभूमि में तिरंगा लहरा रहा है, एक भव्य शानदार दृश्य। आज चारों ओर शांति छायी है, लोग मौन धारण किए हुए हैं। किसी और समय में यह पूरा इलाका बंदूकों की गरज से गूंज रहा था, जब ऊपर बैठे दुश्मनों को खून की होली खेलते हुए बहादुरी और बलिदान के जरिए पूरी तरह पराजित करके जीत का मार्ग प्रशस्त किया गया।
30 जुलाई, 2022 की सुबह मैं इन ऊंचाइयों पर स्थित द्रास वॉर मेमोरियल में बैठा धूप सेंक रहा था. डायरेक्टर जनरल, आर्टिलरी और सीनियर कर्नल कमांडेंट सीनियर लेफ्टिनेंट जनरल टीके चावला ने यहां एकत्र छोटे से समूह को संबोधित किया। वहां मौजूद लोगों में कुछ वरिष्ठ कारगिल सिपाही, मौजूदा कमांडिंग ऑफिसर्स (सेना की भाषा में टाइगर्स), आर्टिलरी कमांडर्स (बुल्स) और सीनियर कमांडर्स शामिल थे। ये सब 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान ‘ऑपरेशन विजय’ में सर्वोच्च कुर्बानी देने वाले गनर्स को श्रद्धांजलि देने के लिए पॉइंट 5140 को ‘गन हिल’ नाम देने के मौके पर आयोजित समारोह में शिरकत करने आए थे।
डायरेक्टर जनरल, आर्टिलरी ने अपनी सटीक शैली के अनुरूप, थोड़े में ही मर्मस्पर्शी ढंग से हमें नौकरशाही की उन जटिलताओं और चुनौतियों से अवगत करा दिया जिनसे पॉइंट 5140 को गन हिल के रूप में नामांतरित करने की इजाजत हासिल करने के क्रम में डायरेक्टरेट को गुजरना पड़ा था। उनके वक्तव्य ने आर्टिलरी के नजरिए से कारगिल युद्ध का पूरा विवरण भी पेश कर दिया।
इस मौके पर तब एंग्री बुल कहलाने वाले मेजर जनरल (तब ब्रिगेडियर) लखविंदर सिंह वाईएसएम (हमारे लिए कोड साइन लकी) और 1999 में यहां तैनात किए गए आर्टिलरी युनिट के पराक्रमी टाइगर्स जैसे मेजर जनरल (तब कर्नल) आलोक देब, कर्नल मेंदीरत्ता, लेफ्टिनेंट जनरल रंजन (तब कर्नल), लेफ्टिनेंट जनरल जॉर्ज (तब कर्नल), कर्नल पासी, ब्रिगेडियर मिश्रा (तब कर्नल) आदि ने अपनी स्मृतियों का पिटारा खोलते हुए शानदार, असाधारण संस्मणों से सबको सराबोर कर दिया।
कुछ तथ्य बताऊं, जैसा मैं उन्हें समझता हूं, तो दुश्मन ने एलओसी से हमारी तरफ आकर सामरिक रूप से महत्वपूर्ण कई ठिकानों पर कब्जा कर लिया था जिससे लद्दाख जाने वाले हाईवे का करीब 45 से 50 किलोमीटर तक का इलाका उनके निशाने की जद में आ गया था। उन्होंने शिमला समझौते के प्रावधानों का उल्लंघन किया था। यह समझौता दोनों देशों को सर्दियों में चौकियों को खाली रखने की सहूलियत देता था ताकि ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में अत्यंत प्रतिकूल मौसम की तकलीफों से बचा जा सके।
1999 की गर्मियों में हमारी पोस्टों पर कब्जे के पीछे दुश्मन की सोच साफ थी। वे द्रास इलाके में नैशनल हाईवे को जाम करके लद्दाख में सर्दियों के लिए ले जाई जाने वाली आवश्यक सामग्रियों की आपूर्ति बाधित करना चाहते थे। उनका इरादा इस इलाके में और ग्लेशियर तक भी भारतीय सेना की स्थापित सैन्य श्रेष्ठता को धक्का पहुंचाने का था। आक्रमणकारियों को यह भी लगता था कि इस क्षेत्र में भारत शिकस्त खाए तो उससे कश्मीर घाटी में आतंकवादी गतिविधियां काफी तेज हो जाएंगी। ऐसी अशांत, अस्थिर स्थितियों में दुनिया जम्मू कश्मीर में दखल देने को मजबूर होगी और भारत की उस पर पकड़ कमजोर हो जाएगी।
भारत के लिए, जहां तक जमीन का सवाल था, यह स्थिति पूरी तरह अस्वीकार्य थी।
भारतीय सेना के लिए यह लड़ने और जीतने का पल था। एक बार कारगिल में घुसपैठ की पुष्टि हो गई तो पूरा देश सशस्त्र बलों की ओर देखने लगा कि वह पलटवार करे और जीत हासिल करे। सबसे मुश्किल काम इन्फ्रैंट्री के सामने था। उन्हें ये चौकियां दोबारा हासिल करनी थीं चाहे इसके लिए ऊंची चोटियों पर भीषण, खतरनाक, आत्मघाती लड़ाई ही क्यों न लड़नी पड़े। माहौल में हार और मौत जैसे अनिष्ट की आशंका दिखाई देने लगी। जीत दूर की कौड़ी लग रही थी। कुछ असफल हमलों के बाद निराशा का यह भाव और गहरा गया। दुश्मन मोर्चा बांध, पूरी तैयारी से, लंबी लड़ाई का मन बनाकर बैठा हुआ था।
यही समय था, 1999 के जून का पहला सप्ताह, जब गनर्स ने अपना असली रंग दिखाया।
भारतीय सेना में हाल के वर्षों में सबसे कठिन मौके ही आर्टिलरी फायर के सबसे साहसिक औऱ सबसे अनोखी तकनीकों का गवाह बने हैं। ‘युद्ध के देवों’ ने ऐसी जबर्दस्त गोलीबारी की है कि दुश्मन घुटनों पर आ गया। हमारी इन्फैंट्री ने किलेबंदी की हुई सुरक्षित जगहों में घुसकर उन्हें बुरी तरह पछाड़ा है।
बाधाओं की कोई सीमा नहीं थी। मैपिंग आधी-अधूरी थी या थी ही नहीं। एयर ऑब्जर्वेशन पोस्ट कवर भी वहां ना के बराबर था। अच्छे एंकर ऑब्जर्वेशन पोस्ट ऑफिसर्स की भी कमी थी जो इलाके से परिचित हों, स्किल्ड ड्राइवर भी नहीं थे… सूची अंतहीन थी।
युनिटें जहां तक हो सके ऊंची और खुली जगहों पर तैनात की गईं। पसीने की बदबू, ऊंचाई पर तीखी धूप, उतना ही भोजन जितना आगे बढ़ने के लिए जरूरी हो… और इन सबके बीच अपने हथियार का ख्याल रखना, गोला बारूद तैयार रखना… कोई भी ऐसी बाधा नहीं जो गनर्स का रास्ता रोक सके।
इन कठिन, चुनौतीपूर्ण हालात में बुल, 8 माउंटेन आर्टिलरी ने काम शुरू किया। इसने तत्काल अपने कुछ अच्छे लोगों को बुलाकर योजना बनानी शुरू की। अगले कुछ दिनों में अस्थायी बंकरों में ब्लैक टी के दौरों के बीच कर्मठ, काबिल औऱ असाधारण आर्टिलरी टाइगर्स ने तोलोलिंग पर कब्जे की एक शानदार योजना तैयार कर ली।
अनुभवी एंकर ऑब्जर्वेशन ऑफिसर्स (जिनमें एक मैं भी था) अपनी सुरक्षा की परवाह न करते हुए दुश्मन के कब्जे वाले ठिकानों के आसपास तक चढ़ाई करके पहुंचे। मकसद था दुश्मन की स्थितियों का पता लगाना जरूरी आंकड़े और सूचनाएं इकट्ठा करना ताकि तोलोलिंग और अन्य महत्वपूर्ण चौकियों को मुक्त कराने की फूलप्रूफ योजना बन सके।
इनोवेशन अलग ही लेवल पर पहुंच चुका था- इनडायरेक्ट डायरेक्ट फायरिंग, मल्टिपल रोविंग पोजिशंस के साथ-साथ गोला बारूद में भी बदलाव, सिंगल गंस से बंकर बर्स्टिंग, अपरिचित इलाकों के लिए विटनेस पॉइंट प्रसीजर, टारगेट को छोड़कर अन्य स्थानों के मामले में आखिरी पलों का बदलाव, कम से कम जगह घेरने के मकसद से एक दूसरे से बिलकुल सटी चलतीं गाड़ियां।
एक बार रजिस्ट्रेशन हुआ नहीं कि 16 अदद आर्टिलरी बैटरीज 100 से ज्यादा गनों से आग उगलने लगीं, सैकड़ों कुशल गनर्स चौबीसों घंटों के लिए जैसे एक्शन में आ चुके थे, बारूद, धूल और धुएं से ऐसे विनाश की गंध आ रही थी कि खुद धरती भी कांप उठी थी।
लोककथाएं बताती हैं कि बीएलजबब, आमन, रीशेफ, मेहफस्टॉफलीज, नरकासुर और महिषासुर जैसे राक्षस जब घिर जाते तो डर से कांपने लगते और सिर पर पांव रखकर भागते थे। बंदूकों का यह ओपेरा मानो प्राचीन निकोमेडिया के डायसकोरस दहन की पुनरावृत्ति थी, वह नृशंस राक्षस जिसने गनर्स के संरक्षक संत सेंट बारबरा का सिर काट दिया था। तोपों के फ्लैश हाइडर्स से निकलती चिंगारियों से ऐसा लगता था जैसे खुद हनुमान ने नरक में तमाम राक्षसों की पूंछ में आग लगा दी है। जिन लोगों ने कारगिल में आर्टिलरी असॉल्ट देखा है वे गोलीबारी के स्वरों का अद्भुत तालमेल जीवन भर नहीं भूल सकते।
पहाड़ की चोटियों पर मौत नाच रही थी, वहां बैठे दुश्मन नरक की आग में जलते हुए रो रहे थे, जो पहाड़ों से गूंजती प्रतिध्वनित होती उनकी चीख-पुकारों से स्पष्ट था। उनके घबराहट भरे रेडियो संदेश भी उस आतंक, भय और घबराहट की गवाही दे रहे थे जो उनकी पोस्टों पर पहपुंचाई जा रही थी। इधर हमारे सैनिक अलग ही राग छेड़े हुए थे- ‘ये दिल मांगे मोर’।
जैसे-जैसे हमारी इन्फैंट्री ऊपर चढ़ती गई, हमारी बंदूकों के हमलों से एक के बाद एक मजबूत किले ढहते चले गए। हमारे सैनिक उन दुर्गम ठिकानों पर पहुंच कर बचे-खुचे दुश्मनों पर धावा बोल कब्जा करते रहे। गहन जमीनी लड़ाई की इस अवधि में कम्बैट आर्म्स और कम्बैट सपोर्ट आर्म्स की वह रेखा धुंधली पड़ते हुए गायब हो चुकी थी, जो शांतिकाल में बांटने का काम करती है। यह पूरा का पूरा टीम प्रयास था। ऐसे कई मौके आए जब हमले का नेतृत्व कर रहा इन्फैंट्री कंपनी कमांडर बुरी तरह घायल हो गया, और आर्टिलरी ऑब्जर्वेशन पोस्ट ऑफिसर ने कमान अपने हाथ में ले ली और हमले को कामयाबी से पूरा किया।
दो महीने से भी कम की उस अवधि में इंडियन आर्टिलरी ने कारगिल, द्रास, बटालिक मश्कोह सेक्टरों में ढाई लाख से ज्यादा गोलियां बरसाईं।
तब से 22 साल और सैकड़ों पन्नों की कागजी लिखा-पढ़ी,,, सचमुच लीडरशिप ने पॉइंट 5140 को ‘गन हिल’ का नाम दिलाने में बड़ी उदारता दिखाई। गन हिल पर कब्जा ‘भारतीय तोपखाना’ द्वारा किए गए विध्वंस की ही बदौलत संभव हुआ था। कारगिल में 30 जुलाई 2022 को हुआ नामांतरण समारोह भव्य था।
यहां जमीन के नीचे सोए उन बहादुर, वीर शहीदों को हम कभी भूल नहीं सकते जिन्होंने सर्वोच्च कुर्बानी देकर यह सुनिश्चित किया कि हम फख्र से सिर ऊंचा कर सकें।
हम तोपची उन बंदूकों के साथ ही जीते और मरते हैं जिनका हम संचालन करते हैं-
सर्वत्र इज्जत-ओ-इकबाल
कर्नल सादा पीटर (रियाटर्ड), कारगिल योद्धा