संपादक की टिप्पणी
अंग्रेजों ने भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश अपने व्यापारिक हितों के कारण किया था और उसके बाद अपनी बढ़ती संपत्ति की रक्षा के लिए छोटा-सा सैन्य बल भेजा था। कुछ ही वर्षा में उनका व्यापार और सैनिक, दोनों समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में छा गए। चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा का लक्षण भी समान प्रतीत होता है। भारत के संदर्भ में जब ग्वादर बंदरगाह की बात होती है, तब पूरे क्षेत्र की सुरक्षा प्रतिमान में बदलाव नजर आता है। लेफ्टिनेंट जनरल रामेश्वर यादव इसमें शामिल मुद्दों की विश्लेषण कर रहे हैं और कुछ उत्तर देने का प्रयास कर रहे हैं।
चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा और ग्वादर बंदरगाह-एक नया सुरक्षा सामरिक प्रतिमान
प्राचीन मालुआ (सिंधु घाटी) की पहचान इसके अब तक के इतिहास में एक भूरणनीतिक स्थान और आर्थिक क्षमता के तौर पर अतिरिक्त क्षेत्रीय ताकतों के अनुकूल रही है। दसवीं शताब्दी के बाद से यहां की संपदा को लूटने के लिए इस्लामी आक्रांताओं ने इस क्षेत्र के पश्चिमी दिशा से यहां कई बार घुसपैठ किया और लूटपाट कर वापस चले गए। हालांकि, यहां व्याप्त गहरी प्रतिद्वंद्विता, खंडित राजनीति और कमजोर शासन को भांपकर वे यहां राजनीतिक जोड़तोड़ और सैन्य हस्तक्षेप से यहां के शासक बन बैठे। बहुत समय के बाद अठारहवीं सदी के मुहाने पर उसी पुरानी राजनीतिक-आर्थिक कारणों को अपना कर पूर्व से आने वाले अंगे्रजों ने सैनिकों की मदद से उन मुस्लिम शासकों को सत्ता से बेदखल कर दिया। आज के समय के संदर्भ में, चीन ने भी उत्तर दिशा से पैठ बनाई है जो कि सैन्य समर्थित है और उसका उद्देश्य आर्थिक लाभ अर्जित करना है।
राजनीतिक रूप से अस्थिर, आर्थिक रूप से परेशान और सैन्य महत्वाकांक्षी पाकिस्तान ने एक तंत्र के रूप में चीन को उसकी परियोजनाः चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) में उसके सैन्य और आर्थिक असुरक्षा की देखभाल करने की जिम्मेदारी ली है। समकालीन सामरिक वातावरण में परियोजना ने इसके मेजबान पाकिस्तान और संचालक चीन, दोनों के लिए नए हितों को जन्म दिया है।
जहां तक चीन का प्रश्न है उसके लिए यह परियोजना उसके सामरिक योजना के काफी अनुकूल है क्योंकि उसे अपने राजनीतिक-आर्थिक विस्तारवादी सोच के लिए एक स्वैच्छिक साझीदार मिल गया है। वास्तव में यह चीन और पाकिस्तान दोनों के लिए एक मास्टर स्ट्रोक है।
सीपीईसी मुख्य रूप से एक चीनी अवधारणा है जो कि पाकिस्तान के पूर्ण समर्थन से साकार हो रहा है, जिसमें पाकिस्तान के जिस क्षेत्र में राजनीतिक-आर्थिक कारणों से वहां की जनता सरकार के साथ खड़ी नहीं है और वह क्षेत्र अशांत है, वहां चीनी श्रमिकों को सुरक्षा कवर कवच करने के लिए पाकिस्तानी सेना की तैनाती शामिल है। इसका सड़क संपर्क जम्मू और कश्मीर के पीओके वाले क्षेत्र से गुजरता है जो कि चीन और पाकिस्तान दोनों की ओर से अंतरराष्ट्रीय कानूनों और प्रोटोकाॅल का एक सिरे से अवज्ञा है। ग्वादर बंदरगाह का उद्घाटन पहले ही पाकिस्तान के सेना प्रमुख और चीनी अधिकारी की मौजूदगी में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री द्वारा किया जा चुका है। जहाज पर पहली खेप भेजी जा चुकी है जो कि इस परियोजना की सफलता का परिचायक है और आर्थिक रूप से यह एक मील का पत्थर है। मीडिया से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार ग्वादर बंदरगाह की सुरक्षा के लिए पनडुब्बियों सहित प्रस्तावित चीनी नौसैनिकों और पाकिस्तान की नौसेना संपत्ति की मौजूदगी को सामरिक समुदाय ने अनदेखा नहीं किया है, क्योंकि इसमें वैश्विक सुरक्षा परिदृश्य में भारी उलटफेर होने की क्षमता है।
ग्वादर पोर्ट, अपने वाणिज्यिक क्षमताओं के अलावा, भौगोलिक दृष्टि से खाड़ी क्षेत्र के साथ ही हिंद महासागर में सैन्य हस्तक्षेप का एक ठिकाना है। इसके अलावा, यह भूमध्य सागर के लिए एक बहुत छोटा मार्ग प्रदान करता है जो कि तीन महाद्वीपों के संधिस्थल पर स्थित है और अटलांटिक महासागर तक पहुंच प्रदान करता है। यह चीन को उच्च रणनीतिक लाभ प्रदान करना है।
ग्वादर पर प्रस्तावित चीनी नौसैनिक मौजूदगी को जब श्रीलंका, म्यांमार, सोमालिया और मालदीव में नौसैनिक करारों के संदर्भ में देखा जाता है तब यह सैन्य साधनों के माध्यम से अरब सागर- हिंद महासागर पर हावी होने के संकेत प्रतीत होती है। चीन अपने रुख पर कायम है कि ‘हिंद महासागर का अर्थ भारत का महासागर नहीं है’। एक अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण द्वारा दक्षिण चीन सागर में चीन के क्षेत्रीय दावों की अस्वीकृति के बावजूद वहां चीन द्वारा आक्रामक सैन्य तैनाती से उसकी धारणा को बल मिलता है। इसलिए, हिंद महासागर में मोतियों की माला में ग्वादर के रूप में एक और मोती जुड़ जाने से उनके इरादे और योजना बहुत अधिक स्पष्ट हो चुकी है।
ग्वादर पर समाप्त होने वाली सीपीईसी परियोजना से चीन को अपने मुख्य स्थल से यहां तक की दूरी तय करने का लगभग 2000 किलोमीटर छोटा मार्ग मिल गया है, फलतः आयात/निर्यात की लागत में कमी आई है। यह, उसके ऊर्जा आपूर्ति क्षेत्र और पश्चिमी एशिया, अफ्रीका के परंपरागत बाजार के पास स्थित है। यह दक्षिण पूर्व एशिया और हिंद महासागर के माध्यम से भी उसकी समुद्री लेनों की बाधाओं और सहवर्ती सुरक्षा चिंताओं से बचने के लिए एक विकल्प प्रदान करता है।
विश्व भर में लागत के संदर्भ में दुनिया भर में औद्योगिक उत्पादन और प्रतिस्पर्धा की अपनी क्षमता की बदौलत आर्थिक गुरुत्वाकर्षण का केंद्र बन चुके चीन के लिए सीपीईसी परियोजना पूरा खेल बदल देने वाला है। दक्षिण चीन सागर और हिंद महासागर में सैन्य हस्ताक्षरों में भारी विस्तार किसी भी कीमत पर अपने राष्ट्रीय हितों को बनाए, टिकाए और उसे बढ़ाने की उसकी राजनीतिक इच्छाशक्ति के भाव को जाहिर करता है। इस आक्रामक चीनी दृष्टिकोण से भारत सीधे तौर पर प्रभावित है। यह चीन द्वारा चारों ओर से घेरे जाने के बराबर है।
सुगठित उप पारंपरिक, पारंपरिक और परमाणु ताकत की सक्रिय स्थिति के अलावा सीपीईसी की सुविधा देकर और चीनी सेना की उपस्थिति को स्वीकार कर पाकिस्तान, भारत के खिलाफ अपने सैन्य शक्ति संतुलन का एक और आयाम बना रहा है। इनका मुकाबला करने, बहु क्षेत्रीय चीनी और पाकिस्तानी खतरे का सामना के लिए भारत के पास एक अकेला पारंपरिक और परमाणु प्रतिरोध है, आगे चलकर पाकिस्तान के रास्ते चीन के लिए एक और सड़क अक्ष उपलब्धता होगा। इसके अलावा, ग्वादर में चीन की नौसैनिक मौजूदगी से हिंद महासागर में चीन के खिलाफ भारतीय हित निश्चित रूप से फीके पड़ जाएंगे। इससे अति संवेदनशील पाकिस्तानी दक्षिणी पाश्र्व, जहां कुछ आकस्मिकताओं में पाकिस्तानी सेना के लिए पीछे हटना मजबूरी होती है, को हल करने में भारत का लाभ प्रभावित होता है।
परिणामतः इससे भारत के प्रति पाकिस्तान के दृष्टिकोण में जुझारूपन जारी रह सकता है और वह अपने नए आर्थिक उछाल के साथ राजनीतिक-सैन्य दुस्साहस में संलिप्त हो सकता है, जो कि चीन की ओर से बढ़ी हुई सैन्य सहायता से भी स्पष्ट होता है। भारत के दुर्लभ स्थानों पर पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित उसके स्वच्छंद नाॅन स्टेट एक्टर्स द्वारा हाल ही में हुए आतंकी हमलों में पाकिस्तान की भागीदारी का जारी रहना, इस नई राजनीतिक अस्थिरता की अभिव्यक्ति करता है।
उपरोक्त विश्लेषण के होते हुए भी, भारत के संदर्भ में पाकिस्तान जो कि अपने कश्मीर जुनून और 1971 के युद्ध में भारत के हाथों मिली हार की गहरी संवेदना से जुडे़ होने के कारण एक सैन्य मानसिकता से काम करता है, के विपरीत चीनी रुख में तथ्यात्मक स्थिति यह है कि समय के साथ दोनों पक्ष अपने आर्थिक उद्देश्यों को सबसे ऊपर रखते हैं। आर्थिक परिदृश्य में, भारत का दुनिया के सबसे बड़े बाजारों में से एक होने और
भौगोलिक रूप से बहुत अधिक समीप होने के कारण, चीन एक सीमा के बाद भारत को न तो नजरअंदाज कर सकता है और न ही इसके साथ दुश्मनी मोल ले सकता है। इसके अलावा, सभी सैन्य हस्ताक्षरों के बावजूद, हिंद महासागर क्षेत्र में नभ, जल और थल में वे संभवतः भारतीय सशस्त्र बलों की बराबरी नहीं कर सकते हैं। इसके अलावा, भारतीय परिचालन क्षमताओं में हुई वृद्धि जिसके तहत इसकी उत्तरी सीमा पर एक स्ट्राइक कोर की तैनाती से चीन, भारत के विरुद्ध धमकी की प्रवृत्ति में कमी लाने के प्रति गंभीर हो सकता है। वह निश्चित रूप से भारत के साथ 1,962 की कहानी नहीं दोहरा सकता है और इसे वह काफी अच्छी तरह से समझता है।
जहां, पाकिस्तान अपने अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा का हकदार है, वहीं भारत के पास भी उचित राजनीतिक-सैन्य गठबंधनों के माध्यम से अपनी सामरिक प्रतिकारी को बढ़ाने का समान विकल्प मौजूद है। भारत का लाभ उसकी राष्ट्रीय हितों की देखभाल करने वाली उसकी स्थिर राजनीति, व्यवस्थित अर्थव्यवस्था और एक मजबूत औद्योगिक आधार के साथ उसकी अपनी आंतरिक क्षमताओं में निहित है। जबकि पाकिस्तान को अपनी राजनीतिक अस्थिरता, कमजोर अर्थव्यवस्था और असुरक्षित सामाजिक वातावरण के कारण बाहरी गठबंधनों पर निर्भर रहना पड़ता है। वास्तव में, वहां कई क्षेत्रों में राजनीतिक अलगाव के चिन्ह दिखाई पड़ते हैं जो कि अशांति के माध्यम से पहले ही कई बार सार्वजनिक हो चुके हैं। ये जमीनी हकीकत उत्तरी इलाकों और बलूचिस्तान में सीपीईसी के विरोध के रूप में उभर रहे हैं, जिससे पाकिस्तानी सेना को चीनी श्रमिकों को सुरक्षा देने पर मजबूर होना पड़ा है।
मौजूदा परिस्थितियों में, चीनी अधिकारी स्पष्ट रूप से पाकिस्तानी सुरक्षा आश्वासनों से आशंकित हैं, इसलिए संभवतः वे चाहते हैं कि ग्वादर बंदरगाह के सुरक्षा तंत्र में उनके सुरक्षा बलों को सामरिक स्तर पर शामिल किया जाए। यह पाकिस्तानी समुद्री क्षेत्र में पैठ बनाने का चीन का सुनियोजित बहाना हो सकता है और आगे चलकर वह इसे बढ़ाकर अरब सागर में सबसे अहम ठिकाने पर एक संपूर्ण चीनी नौसेना बेस स्थापित कर सकता है।
सीपीईसी तत्कालिक रूप से पाकिस्तान के अनुरूप हो सकता है, लेकिन एक उभरते महाशक्ति को अपने आर्थिक और सैन्य क्षेत्र में जगह देना कालांतर में उसे उसके राजनीतिक मामलों में पैठ बनाने से नहीं रोक पाएगा। शायद, पाकिस्तान के पास एशियाई परिदृश्य से अपने स्वयं के नुकसान के दम पर पश्चिमी दुनिया द्वारा संरक्षण में कमी लाने और लगातार बढ़ रहे स्वरचित आंतरिक और बाह्य सुरक्षा संबंधी समस्याओं जो कि आर्थिक गिरावट के साथ उसकी चिंताओं को और अधिक बढ़ाने वाल ही है, के बीच संतुलन कायम करने का इससे बेहतर कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था। इसी ने शायद उन्हें अपने सामरिक हित को साधने हेतु चीन के प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया, जिसमें पाकिस्तानी की मौजूदा आर्थिक संकट से उबरने के लिए राहत पैकेज देने और सैन्य क्षमता को बढ़ाने के लिए आर्थिक सहायता देने का वादा किया गया है।
इसकी पूर्ण संभावना है कि जिस प्रकार ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को राजनीतिक रूप से अपने अधीन कर लिया था, ठीक उसी प्रकार से पाकिस्तान को चीन अपने अधीन कर ले। ईस्ट कंपनी ने भी बंगाल में निर्दोष और अहानिकर व्यापारियों के रूप में ही प्रवेश किया था। वे अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए एक छोटी सी सैन्य टुकड़ी लेकर आए थे जो कि आगे चलकर समूचे उप महाद्वीप को जीतने का एक उपकरण बन गया था। वर्तमान चीन-पाकिस्तान राजनीतिक-सैन्य समीकरण के संदर्भ में यह प्रारूप भी समान प्रतीत हो रहा है। इसमें भौतिक कब्जे की संभावना भले कम हो, लेकिन चीनी हितों से संबंधित मामलों पर राजनीतिक हस्तक्षेप की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यहां चीन अपनी शर्त पर ठहरने के लिए आ रहा है। यह तस्वीर कुछ अलग होती यदि पाकिस्तान ने अपने दम पर संचार तंत्र और ग्वादर बंदरगाह स्थापित किया होता और तब किसी भी अन्य देश की तरह चीन को इस बंदरगाह की सुविधाओं के उपयोग की अनुमति देता। चूंकि सीपीईसी पर चीन-पाकिस्तान के बीच समझौते पर सभी जानकारियां सार्वजनिक नहीं है, यह माना जा सकता है कि यह समझौता चीन के पक्ष में ज्यादा होगा। उन्होंने न केवल पैसे का निवेश किया है बल्कि क्षेत्र और वैश्विक स्तर दोनों में दीर्घकालिक सामरिक दृष्टिकोण के साथ अपने राजनीतिक-सैन्य प्रतिष्ठा को भी इसमें शामिल किया है।
इस बात की सराहना की गई है कि हमारी जमीन और समुद्री क्षेत्र में चीन और पाकिस्तान के बीच उभरते राजनीतिक- सैन्य गठजोड़ से वहां सैन्य साझेदारी को दिखाने का मौका मिलेगा क्योंकि दोनों को ही हमारी सेना को अपमानित करने का ठिकाना मिल जाएगा। सैन्य दृष्टिकोण से लदाख पर पाकिस्तान और चीन की ओर से दोहरे खतरे पर हमारे लिए सबसे अधिक ध्यान देने की जरूरत है।
जहां चीन टीएआर को सीपीईसी से सीधे तौर पर जोड़ने के प्रति इच्छुक हो सकता है, वहीं पाकिस्तान कश्मीर घाटी में प्रवेश के लिए उत्तरी छोर को खोलने, जिसके लिए उन्होंने कारगिल दुःसाहस के समय भी प्रयास किया था, के अलावा सिंधु नदी के जल को नियंत्रित करना चाहता है। चीन अपने सामरिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दूसरे देश की जमीन पर कब्जे की प्रवृति के लिए जाना जाता है।
शिनजियांग को टीएआर से जोड़ने के लिए 1962 में अक्साई चीन पर कब्जा और अब जम्मू-कश्मीर के विवादित क्षेत्रों से होकर पाकिस्तान के साथ मिलीभगत से वहां सीपीईसी का निर्माण, इस संबंध में उल्लेखनीय उदाहरण हैं। इसलिए, उचित राजनीतिक लाभ लेने और सैन्य क्षमता विकसित करने के लिए हमारी सैन्य ताकत को खतरा उन्मुख रक्षात्मक सैन्य सिद्धांतों के बदले आक्रामक क्षमता आधारित सिद्धांतों विशेषकर चीन के विरुद्ध पहाड़ी क्षेत्रों में, बदलने की जरूरत है।
भारत को अपने सुरक्षा परिदृश्य में इस नए सामरिक गतिशीलता के आयाम को ध्यान में रखने और सैन्य क्षमताओं का उन्नयन करके उभरते नकारात्मक माहौल को बेअसर करने के लिए उपाय शुरू करने की जरूरत है। अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ के साथ उचित गठबंधन बनाने हेतु हिंद महासागर क्षेत्र में चीन के पदचिन्हों को देखने और जांचने के लिए आक्रामक कूटनीति अपनाई जाने की जरूरत है। परिकल्पित उभरते सुरक्षा चुनौती पर विरोधी ताकतों को जवाबी कार्रवाई की तैयारियों के संबंध में अपेक्षित संदेश देने के लिए सैन्य कूटनीति को अगले स्तर तक ले जाया जा सकता है। परमाणु क्षमता में जबरदस्त शक्ति है जिसे बदले हुए रणनीतिक माहौल में उचित रूप से संतुलित किए जाने की आवश्यकता है। हालांकि, एक मजबूत सैन्य शक्ति के साथ अपनी सामरिक संतुलन को बनाए रखने के लिए भारत को अपने आर्थिक लाभों के साथ ही उचित राजनयिक प्रोत्साहन को जारी रखना चाहिए।
लेफ्टिनेंट जनरल रामेश्वर यादव (सेवानिवृत्त)
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