संपादक की बात
लेखक मानते हैं कि भू-राजनीति तथा घरेलू दबावों में परिवर्तन होने के कारण विदेश नीतियां भी परिवर्तनशील होती हैं। जहां तक हमारा प्रश्न है, हमें नीतियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘इंडिया फर्स्ट’ और अपने ‘पड़ोस’ को केंद्र में रखने के उद्देश्य का ध्यान रखना है। किंतु जब हम उन लक्ष्यों को पाने का प्रयास करते हैं तब हमारे पास-पड़ोस में चीन का फैलता प्रभाव बड़ी बाधा बन जाता है। इतना ही नहीं, अमेरिका के साथ हमारी बढ़ती निकटता के कारण रूसी सरकार पाकिस्तान के साथ अपने रिश्ते मजबूत कर रही है। ऐसी परिस्थितियों में क्षेत्र में गंभीर शक्ति बनकर उभरने के लिए हमारी नीति किस प्रकार की होनी चाहिए? राजदूत अनिल त्रिगुणायत इसका उत्तर सुझा रहे हैं।
भारत की विदेश नीति के सामने वर्तमान चुनौतियां
देशों की विदेश नीतियों के रणनीतिक उद्देश्य तथा भौगोलिक निर्देश अंतरराष्ट्रीय संवाद की रूपरेखा को मोटे तौर पर परिभाषित करते हैं। फिर भी विदेश नीति लगातार बदलती और दुरुस्त होती रहती है। उसे घरेलू बाध्यताओं तथा वैश्विक संपर्क की संभावनाओं एवं क्षमताओं के अनुसार और भी दुरुस्त किया जाता है ताकि उसके राष्ट्रीय हितों को तत्कालीन सरकार की धारणा के अनुसार सर्वश्रेष्ठ तरीके से साधा जा सके। भारत भी अपवाद नहीं है और गुट निरपेक्षता हो या प्रमुख शक्तियों को चुनकर उनके साथ गठबंधन करना हो, राष्ट्रीय हित के मामलों तथा विदेश नीति के मूल उद्देश्य पर आजादी के बाद से अभी तक समूचे राजनीतिक वर्ग का एकसमान मत रहा है। छोटे या लंबे समय में संभावित लाभों के मुताबिक परिवर्तन किए गए हैं। किंतु मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद से विदेश नीति में विस्तार की शैली, तरीकों तथा घटकों में नाटकीय परिवर्तन हुआ है। इसके परिणामों से कुछ लोग असहमत हो सकते हैं किंतु परिवर्तन सामने दिख रहे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने “इंडिया फर्स्ट” को सारगर्भित तरीके से विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य बना दिया और अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस नेताओं को न्योता देकर “पड़ोस” को प्राथमिकता देते हुए संपर्क आरंभ किया, जिसे कई पर्यवेक्षकों ने उत्कृष्ट और असाधारण लेकिन आवश्यक शुरुआत का नाम दिया। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के अनुसार 170 से अधिक विदेशी प्रतिनिधियों के साथ इस दौरान बातचीत की गई। क्षेत्रीय तथा वैश्विक मामलों में और अधिक प्रभाव डालने की कोशिश कर रहे भारत जैसे देश के लिए अहम है कि उसे पड़ोसी देशों से सहयोग मिलता रहे। कोई और रास्ता ही नहीं है क्योंकि कोई भी अपने पड़ोसी चुन नहीं सकता, वे तो भूगोल तथा इतिहास से उसे मिलते हैं। हमारे मामले में आतंकवाद को प्रायोजित करने वाले पाकिस्तान के अड़ियल रवैये के बावजूद प्रयास जारी रहने चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सद्भावना भरी कूटनीति दिखाए जाने अथवा बहुचर्चित ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ या आतंकवाद पर नोटबंदी का कथित असर होने के बावजूद पाकिस्तान ने और हमले किए हैं, यह जानते हुए भी हमारा रुख अभी तक यही रहा है।
नीति निर्माता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान का पर्दाफाश करना और उसे अलग-थलग करना चाहते थे। हालांकि इसमें कुछ सफलता मिलने का दावा किया जा सकता है, लेकिन यह पाकिस्तान को उसके कुत्सित इरादों से तथा भारत विरोधी हमलों एवं गतिविधियों में लिप्त रहने से रोकने के लिए काफी नहीं रहा है। उल्टे पाकिस्तान ने विशेष रूप से तालिबान से घिरे अफगानिस्तान के संदर्भ में रणनीतिक रूप से अपनी बेहतर स्थिति का पहले अमेरिका तथा पश्चिम और अब रूस से लाभ उठाया है।
चीन भी हर मुश्किल में उसका दोस्त बना रहा है और वैश्विक चिंताओं को नजरअंदाजा कर हर परिस्थिति में पाकिस्तान का साथ निभाता रहा है। हमारे अन्य पड़ोसी भी अक्सर क्षेत्रीय ताकतों विशेषकर चीन से अधिक से अधिक लाभ लेने के लिए दांव खेलते रहते हैं। उनके राष्ट्रीय हितों के लिहाज से देखा जाए तो ऐसी अस्थिर कूटनीति समझ में आती है, लेकिन इसके फेर में हमारी सुरक्षा तथा राष्ट्रीय हितों से समझौता हो जाता है। इस उपक्षेत्र में भारत को दबाकर रखने अथवा नीचा दिखाने की इच्छा वाली किसी प्रमुख शक्ति से शह पाए बगैर क्या हमारा कोई भी पड़ोसी इस तरह अवज्ञा कर सकता है।
विदेश नीति के मामले में भारत की सबसे बड़ी चुनौती केवल यह नहीं होगी कि अपने पड़ोसियों तथा आसियान एवं पश्चिम एशिया समेत दूरवर्ती पड़ोसियों को किस तरह संभाला जाए बल्कि विश्व की प्रमुख शक्तियों के साथ अपने संबंधों को दुरुस्त करना भी चुनौती होगी क्योंकि वे शक्तियां अपना-अपना प्रभाव जमाने के लिए होड़ करती रहती हैं तथा किसी न किसी के जरिये यह काम करना चाहती हैं जबकि इतने बड़े आकार, आर्थिक एवं सैन्य शक्ति, मानव संसाधन तथा रणनीतिक लाभ के कारण भारत ऐसी भूमिका में नहीं आ सकता। ऐसी परिस्थितियों में कोई अपने सिर पर मंडराते सायों से छुटकारा कैसे पाए?
चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षाएं तो हैं ही, उसके साथ संबंध बनाए रखना बाकी सभी संबंधों की तुलना में सबसे अधिक कठिन रहा है। चीन ने अपनी वित्तीय एवं सैन्य ताकत के जरिये तथा दरियादिली से खैरात बांटकर भारत के पड़ोस में अपना मजबूत प्रभाव जमा लिया है, जो हमारी विदेश नीति के उद्देश्यों की राह में बाधक बन सकता है। चीन की ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल’ रणनीति उसकी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना और बेल्ट एंड रोड परियोजनाओं के लिए सटीक बैठती है। वास्तव में इससे चीन का प्रभाव और भी आगे तक चला जाता है, जो रणनीतिक रूप से हमारे लिए असहजता भरा हो सकता है। चीन ने नेपाल और श्रीलंका के साथ अपने रक्षा संबंध और भी मजबूत किए हैं। इसका मुकाबला करना है तो क्षेत्र में हितधारकों को उसी प्रकार का लेकिन और भी आकर्षक तथा व्यावहारिक प्रोत्साहन देना होगा।
जहां तक चीन-भारत संबंध हैं तो प्रत्यक्ष तौर पर सब कुछ ‘सहयोग-प्रतिस्पर्द्धा’ का नमूना लग रहा है। लेकिन चीन मौके की ताक में भारत की तरफ देख रहा है और रूस जैसे भारत के पारंपरिक साझेदारों को दूर ले जाने की कोशिश भी कर रहा है। रणनीतिक वैश्विक मंच पर जगह पाने के भारत के दावे का चीन द्वारा लगातार किया जा रहा विरोध परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल होने तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता पाने के हमारे प्रयासों को विफल करता रहेगा। चीन-पाकिस्तान-रूस के बीच कुछ समय पहले हुई बैठकें तथा भारतीय सैन्य प्रतिष्ठानों पर आतंकी हमले होने के बावजूद रूस-पाकिस्तान सैन्य अभ्यास इसका उदाहरण हैं।
रूस के साथ भारत के रिश्ते बहुत पुराने और विविधता भरे हैं, लेकिन अमेरिकी प्रशासन के साथ भारत की बढ़ती निकटता ने रूसियों को प्रकट रूप से तालिबान और अफगानिस्तान के कारण ही सही, पाकिस्तान के साथ रिश्ते बढ़ाने का बहाना दे दिया है। इसके संकेत कम से कम सात-आठ वर्ष से मिल रहे थे। लेकिन क्या अब मामला ऐसी जगह पहुंच गया है, जहां से वापसी नहीं हो सकती। कुछ वर्ष पहले तक यह मान लिया गया था कि रूसी प्रशासन पाकिस्तान की बातों में नहीं आएगा। लेकिन हकीकत यह है कि ऐसा हो चुका है और अब उसका सामना करने और उन्हें अलग करने की जरूरत है। यह भी सच है कि “भरोसेमंद और पुराने दोस्त” या “रूसी-हिंदी भाई भाई” जैसे भावनात्मक जुमलों से स्थिति पहले की तरह नहीं की जा सकती, लेकिन भारत के साथ सख्त आर्थिक रिश्ते उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर सकते हैं क्योंकि खनिजों तथा हीरों के अलावा सैन्य उपकरणों तथा असैन्य परमाणु प्रतिष्ठानों के लिए भारत अब भी उसके सबसे बड़े बाजारों में शामिल है।
कारोबार से ज्यादा समझ आने वाली भाषा कोई नहीं। इसके अलावा यदि ट्रंप-पुतिन समीकरण आगे जाकर कारगर साबित होते हैं तो चीन और पाकिस्तान दोनों के मामले में भारत के साथ रूसियों की भावनात्मक दूरी कम हो सकती है। लेकिन हम संबंधों के बारे में अपने प्रयासों के लिए हम इन कल्पनाओं के भरोसे नहीं बैठ सकते। अगर रूसियों के साथ कहीं भी भरोसे की कमी और गलतफहमी है तो हमें कूटनीतिक संकेतों के फेर में पड़कर मामला बिगाड़ने के बजाय सीधे उनके नेतृत्व से बात कर उसे दूर करना होगा।
जहां तक अमेरिका की बात है, हालांकि भारत के साथ रणनीतिक रिश्ते और भी मजबूत करने के लिए दोनों पक्षों का समर्थन है, लेकिन ट्रंप प्रशासन की आसक्ति और प्रतिबद्धता ‘कोरे पन्ने’ की तरह यानी पूर्वग्रह रहित है और अमेरिका में भारतीय समुदाय का मजबूत प्रभाव तथा राष्ट्रपति ट्रंप की कारोबारी रुख रखने वाली टीम उसे भारत की ओर केंद्रित रखने में सहायक हो सकती है। रोजगार और विनिर्माण वापस अमेरिका में लाने तथा कर ढांचों में प्रस्तावित बदलावों की नीतियों से भारत में अमेरिकी वित्तीय निवेश में कमी आने की आशंका तो है, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को कुछ दिक्कत हो सकती है। यहां एक बार फिर वही बात आती है कि प्रतिस्पर्द्धा भरा तथा दूसरों की तुलना में अधिक फायदे एवं प्रोत्साहन भरा बाजार बने रहना हमारे लिए आवश्यक है और इसके लिए हमें नियमों को पिछली तिथि से लागू करने से बचना होगा क्योंकि इससे विदेशी निवेशकों के मन में शंकाएं उत्पन्न हो गई हैं।
चीन के बढ़ते प्रभाव का उत्तर देने के लिए यदि अमेरिकी एशिया प्रशांत एवं हिंद महासागर क्षेत्रीय सहयोग की अपनी रणनीतिक योजना के अनुरूप भारत में अधिक स्थान चाहते हैं तो लघु अवधि में यह फायदेमंद हो सकता है। अमेरिका के साथ भारत के रक्षा संबंध बढ़ते रहेंगे क्योंकि अमेरिका में सैन्य-औद्योगिक तालमेल इसके पीछे प्रमुख शक्ति है, लेकिन टकराव होने पर किसी भी प्रकार का झटका नहीं लगे, इसके लिए विशेष रूप से पुर्जों की विश्वसनीय आपूर्ति सुनिश्चित करनी होगी। हमें भारत-अमेरिका-जापान त्रिपक्षीय संवाद के साथ संपर्क और भी बढ़ाना चाहिए या बेहतर होगा कि समान क्षेत्रीय उद्देश्यों वाले समूह में ऑस्ट्रेलिया को भी शामिल कर चतुर्पक्षीय संपर्क बढ़ाया जाए।
आतंकवाद विशेषक पाकिस्तान प्रायोजित आंतकी समूहों की ओर से आतंकवाद दशकों से भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा रहा है। संयुक्त राष्ट्र में अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर समग्र संधि (सीसीआईटी) कराने के भारत के प्रयास प्रमुख देशों की प्रतिबद्धता कम होने के कारण विफल रहे हैं। आईएसआईएस, अलकायदा और उसकी विभिन्न शाखाओं तथा चरमपंथी इस्लामी गुटों के खिलाफ लड़ाई विशेष रूप से पश्चिम एशियाई देशों के साथ खुफिया जानकारी की अधिक साझेदारी तथा सहयोग के जरिये ही करनी होगी और इसके लिए “लुक वेस्ट” नीति को “एक्ट वेस्ट” नीति में बदलना होगा, जिससे पाकिस्तान के साथ उनकी नजदीकी और समर्थन कम हो सकता है।
चीन जैसे देश स्वयं भी आतंकवाद से पीड़ित होने के बावजूद मसूद अजहर जैसे पाकिस्तानी आतंकवादियों को बचाते रहेंगे और रूस का इरादा पाकिस्तान को आतंकवाद का प्रायोजक देश घोषित करने का नहीं है। इससे भारत विरोधी आतंकी हरकतों को जारी रखने की पाकिस्तान की मंशा और भी मजबूत हो गई है, जिसका सामना करने के लिए व्यापक और सार्थक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन जरूरी हैं।
2017 में दुनिया बदलेगी और विशेष रूप से प्रमुख शक्तियों के बीच नए द्विपक्षीय समीकरण बन सकते हैं, जिनका आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई, वैश्विक अर्थव्यवस्था एवं व्यापार, अभी जारी संघर्षों या धीमे-धीमे सुलग रहे टकरावों पर प्रभाव सकारात्मक हो सकता है या नहीं हो सकता है, लेकिन होगा जरूर। भारत को प्रासंगिक बने रहने के लिए जोखिमों की थाह लेनी होगी और अपना रुख तय करना होगा।
राजदूत अनिल त्रिगुणायत
(अनिल त्रिगुणायत जॉर्डन, लीबिया और माल्टा में भारत के राजदूत रह चुके हैं)
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of BharatShakti.in)
1 Comments
virendra dixit
bahut achchha lekha hai anil sir