हथियारों का भारतीयकरण नहीं करने के खतरे और निर्यात के विकल्प की तलाश


संपादक की बात

इस वेबसाइट पर 7 दिसंबर 2016 को इसी विषय पर प्रकाशित पहले लेख में दूसरों के युद्धों की ऐतिहासिक समीक्षा से लेखक ने यह निष्कर्ष निकाला कि भारत के लिए लगभग प्रत्येक श्रेणी में आयुध आयात पर इतना अधिक निर्भर रहना बुद्धिमानी नहीं होगी। आज लोग ऐसा कहते दिखते हैं कि भारत को संभवतः दो मोर्चों पर छोटे लेकिन सघन युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए।

नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट के आधार पर शोध कर लेखक ने इस लेख में गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया है, जो स्थिति की गंभीरता तथा देश में ही क्षमता निर्माण की आवश्यकता पर जोर देता है।

हथियारों का भारतीयकरण नहीं करने के खतरे और निर्यात के विकल्प की तलाश

2008 से 2013 की अवधि का विश्लेषण करते समय सीएजी ने 20 दिन के सघन तीव्रता वाले युद्ध अथवा 40-45 दिन के मिश्रित तीव्रता वाले युद्ध के लिए आयुधों के सामान्य रूप से स्वीकार्य निम्नतम आवश्यक स्तर को आधार बनाकर सरकार को सभी आयुध श्रेणियों में गंभीर किल्लत का दोषी ठहराया है। अपुष्ट समाचारों के अनुसार रक्षा मंत्रालय के भीतर संभवतः इस बात पर भी विचार हो रहा है कि 10 दिन के सघन तीव्रता वाले युद्ध के लिए पर्याप्त युद्ध सामग्री सदैव तैयार रखी जाए।

सघन युद्धः भारत का अनुभव

Image Courtesy: Pakistan Today

स्वतंत्रता के उपरांत भारत ने जो भी युद्ध लड़े हैं, उनमें युद्ध सामग्री के खर्च; विमानों, जहाजों, टैंकों और यहां तक कि पैदल सेना (इन्फैंट्री) के उपयोग के मामले में लड़ाई की तीव्रता द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कहीं भी हुए युद्धों की अपेक्षा बहुत कम रही है। यह पहलू सामरिक उपलब्धियों अथवा विजय या पराजय में व्यक्तिगत एवं टुकड़ी के स्तर की गाथाओं का श्रेय कम नहीं करता। लेकिन तीव्रता का पहलू इस चर्चा में प्रासंगिक है। तीव्रता ही प्रायः तय करती है कि कोई भी पक्ष किस तेजी के साथ सामरिक अथवा अभियान के स्तर का लक्ष्य हासिल करता है या दूसरा पक्ष कितनी तेजी से उसे इससे रोकता है। किसी शत्रु की अप्रत्याशित तीव्रता व्यवधान, अराजकता पैदा कर सकती है और सेना को उखाड़ सकती है। साथ ही समय पर दिया गया सघन प्रत्युत्तर उसके बेहद सशक्त आक्रमण को भी विफल कर सकता है अथवा कमजोर आक्रमण को नेस्तनाबूद कर सकता है।

1948: जम्मू-कश्मीर

1948 का जम्मू-कश्मीर युद्ध हल्की तीव्रता वाला था। सक्रियता के साथ लड़ाई करने वाले जवानों की संख्या कम थी और जैसे ही अधिक जवानों, तोपों और बख्तरबंद वाहनों के साथ लड़ने की संभावना प्रशस्त हुई, वैसे ही भारत ने युद्धविराम की लुभावनी अपील स्वीकार कर ली।

1962: भारत-चीन युद्ध

निष्पक्ष होकर देखें तो 1962 का भारत-चीन युद्ध मझोली से कम तीव्रता वाला युद्ध था। युद्ध सामग्री और गोला-बारूद पर होने वाले खर्च की दर, अवधि की तुलना में दोनों पक्षों में हुई हानि अथवा हवाई ताकत की कमी के संदर्भ में इसे तीव्रता वाले युद्ध की श्रेणी में रखना भी मुश्किल होगा। उतना ही प्रासंगिक मानदंड यह भी था कि युद्ध बंद होने तक भी मुश्किल से 10 प्रतिशत भारतीय सेना का ही उपयोग हुआ था। फिर इसे तीव्र युद्ध कैसे कहा जा सकता है?

1965: भारत-पाकिस्तान युद्ध

1965 में कहानी कुछ अलग नहीं थी। झड़पें और नीतिगत लड़ाइयां तो कई थीं, लेकिन यदि लंबी भू सीमा पर तैनात भारी भरकम सशस्त्र बलों वाले दो देशों के संदर्भ में बात करें तो हवाई हमलों समेत कुल तीव्रता बहुत अधिक नहीं थी। आक्रमणकारी के रूप में अपनी पसंद का युद्ध करने वाले पाकिस्तान को अधिक चतुर होना ही था और निर्णायक बिंदुओं पर अपने आक्रमण में अधिक मजबूत होना चाहिए था। दूसरी भारत शुरुआती झटके झेलने के बाद संभल गया, लेकिन उसने उस तरह की सामरिक ताकत के साथ जवाबी हमला नहीं किया, जैसी उस समय के भ्रमित राजनीतिक-सामरिक माहौल में भी संभव थी। भारतीय नौसेना आरंभ में चुपचाप युद्ध देखती रही; वायुसेना ने पाकिस्तानी वायुसेना (पीएएफ) को जवाब दिए बगैर पूर्व में नुकसान सह लिया।

1971: भारत-पाकिस्तान युद्ध

Image Courtesy: madrasregiment.org

एक नए राष्ट्र बांग्लादेश के निर्माण में परिणीत होने वाले 1971 के युद्ध की सामरिक स्तर पर योजना बहुत शानदार तरीके से बनाई गई थी। अभियानगत एवं नीतिगत आयुधों के मामले में यह युद्ध काफी क्षमता के साथ लड़ा गया। किंतु जिस तीव्रता के साथ इसे लड़ा गया, वह दूसरे देशों द्वारा लड़े गए सीमित युद्धों के कई चरणों की तुलना में कम ही रही। (ऐसे युद्धों के कुछ उदाहरण पिछले लेख में दिए गए थे।) इसका कारण सेनाओं की असमानता रही, जो पूर्वी पाकिस्तान के मोर्चे पर भारत की कई महीने की तैयारी का परिणाम थी। विपक्ष में पाकिस्तानी सेना की संख्या कम थी; युद्ध क्षमता विशेषकर हवाई क्षमता कम थी; वह मुक्ति संघर्ष को निर्दयता के सथा कुचलने में लगी थी और उसका तेजी से सफाया हो गया।

अभियान के स्तर पर उनका नेतृत्व और योजना भी बहुत घटिया थी। उन्हें जल्द ही करारी हार दिलाने वाले संघर्ष तो बहुत हुए, लेकिन युद्ध की तीव्रता के मामले में वे बहुत तीव्र नहीं थे। राजनीतिक रूप से सीमित उद्देश्य वाले पश्चिमी मोर्चे पर भी कम तीव्रता वाले कई संघर्ष हुए। आक्रमण के दौरान सेना के तीनों अंगों में खर्च हुए आयुध 1967 और 1973 में पश्चिम एशिया में हुए युद्धों में संघर्षरत पक्षों की तुलना में बहुत कम रहे होंगे। यदि पूर्वी मोर्चों पर युद्ध की तीव्रता बढ़ाना संभव होता तो युद्ध कुछ दिन पहले ही (दो या तीन दिन में ही) समाप्त हो सकता था और आत्मसमर्पण करने वाले पाकिस्तानी युद्धबंदियों की संख्या संभवतः कम होती, लेकिन उसे युद्ध में क्षति बहुत अधिक हुई होती।

1999: कारगिल सेक्टर में भारत-पाकिस्तान युद्ध

1999 का कारगिल युद्ध स्थान के मामले में स्थानीय स्तर का था। प्रतिद्वंद्वी सेनाओं की संख्या कम थी, उनकी गहरी पैठ थी, लेकिन युद्ध क्षमता में कमी थी। न ही अभियान और नीतिगत मामलों में उन्हें पाकिस्तान नेतृत्व से अच्छा समर्थन मिलता दिख रहा था। फिर भी बाद में लिखे गए विवरणों से पता चलता है कि चोटियों को फिर हासिल करने के लिए बहुत अधिक जवान गंवाने पड़े, अनुमान से भी अधिक हथियार, गोला-बारूद और हवाई हथियार खर्च करने पड़े। हफ्तों तक चली लड़ाई में तीव्रता उतनी ही कम थी, जितनी कम स्थान में होने वाली लड़ाई की होती है। इसके बावजूद कारगिल में बहुत हथियार खर्च हुए और उसे दोबारा हासिल करने के लिए कई बहादुर सैनिक शहीद हुए। यदि कारगिल संघर्ष को बड़े मोर्चे तक फैलाया जाता या एक और भारत-पाकिस्तान युद्ध का रूप उसे दिया जाता तो ऐसा प्रतीत होता है कि पाकिस्तान को सही से सबक सिखाने के लिए भारत के पास हथियारों की कमी हो सकती थी।

चीन और “सघन” युद्ध

इसीलिए भारत के मामले में अतीत इस बात का सही अंदाजा नहीं दे सकता कि भविष्य में हमें कितनी तीव्रता की लड़ाई करनी पड़ सकती है। फिर भी हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि चीन के पास अत्यधिक तीव्रता वाले युद्ध का ऐतिहासिक अनुभव रहा है। इसके उदाहरण राष्ट्रवादियों और कम्युनिस्टों के बीच हुए ढेर सारे गृह युद्ध भी हैं और जापानियों के साथ हुए युद्ध भी। इसके बाद कोरियाई युद्ध था, जिसमें बहुत तीव्र लड़ाई हुई थी। और भी पीछे जाएं तो 1894-95 के साल भर लंबे चीन-जापान युद्ध के दौरान बड़े क्षेत्र में बड़ी सेनाओं के साथ बड़े स्तरों पर लड़ाइयां हुईं और समुद्र तथा बंदरगाहों के आसपाास भी भारी टकराव हुआ। इससे भी अहम था चीन-वियतनाम युद्ध, जो 1979 से लगभग 1990 तक चला और जिसमें चीन की ओर से हथियारों का बहुत अधिक इस्तेमाल किया गया। भारत में इस युद्ध को देखने का नजरिया बहुत सामान्य है, जो कहता है कि वियतनाम ने बहुत तेजी से जीत हासिल की और बड़ी ताकतों को हराने की अपनी सूची में एक और उपलब्धि जोड़ ली।

असली सबक तो सीखने चाहिए तीव्र लड़ाई के कई दौरों से; जान-माल की अत्यधिक क्षति से; लाखों गोले खर्च करने वाले युद्ध में आयुधों के महत्व से; हथियारों की आपूर्ति के लिए वियतनाम की सोवियत संघ पर निर्भरता से और हथियारों के स्वदेशीकरण के लिए देंग शियाओ पिंग द्वारा दिखाई गई तेजी से। वियतनामी उस जीत का पूरा श्रेय लेते हैं, लेकिन जानते हैं कि टक्कर कितनी बराबरी की थी।

राष्ट्रीय गौरव, आत्मनिर्भरता की इच्छा, विश्व शक्ति बनने के सपनों अलावा यह मानना संभवतः सही होगा कि सघन युद्धों को झेलने के कारण ही चीन के भीतर हथियारों की संख्या और गुणवत्ता पर ध्यान देते हुए आत्मनिर्भरता हासिल करने की इच्छा आई है और वह जानता है कि सबसे अच्छा होने से बेहतर है बहुत अच्छा होना।

Image Courtesy: The Indian Express

हमें तीन और पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए। पहला, अमेरिकी सेना से बराबरी करने और फिर उससे आगे निकलने की चीन की इच्छा किसी दिन उसे अमेरिका का टक्कर का प्रतिद्वंद्वी बना सकती है, जो अभी चीन को लगभग टक्कर का मानता है। दूसरा, यदि हम आधुनिक और भावी परिस्थितियों में सघन युद्ध की चीन की समझ को नहीं सराहते हैं और उसके बाद उसकी “टक्कर” के सैन्य प्रतिस्पर्द्धी बनने का प्रयास नहीं करते हैं तो संभवतः हम गंभीर गलती करेंगे। अन्यथा उसे रोकना अथवा न रुके तो युद्ध लड़ना और भारी पड़ना मुश्किल होगा। अंत में, बातें छोड़ें, हथियारों संबंधी आवश्यकताओं का “भारतीयकरण करते हुए स्वदेशीकरण करने” के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है।

पाकिस्तान

चीन को रोकने की अपनी क्षमता सुधारने और साथ में चीन के खिलाफ युद्ध की समूची क्षमता बढ़ाने के लक्ष्य से पाकिस्तान की समस्या भी कुछ हद तक कम हो जाती है। फिर भी असली चिंता उस वास्तविक और कपट भरी सामरिक बढ़त से है, जो चीन और पाकिस्तान को एक-दूसरे की मदद से हासिल है। 1965 और 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध की तीव्रता कम संभवतः इसीलिए थी क्योंकि दोनों ही आयुधों के मामले में आयात पर बहुत अधिक निर्भर थे।

चीन और पाकिस्तान के बीच कपट भरा मेलजोल बढ़ने की संभावनाएं भी बढ़ रही हैं। वित्त, भूभाग और सेना के मामले में चीन पाकिस्तान में जितना अधिक घुसता जाएगा, दोनों का संबंध भी उतना ही गहरा होता जाएगा। पाकिस्तान सरकार को अपने देश के कुछ वर्गों से निपटना पड़ सकता है, जिनके बीच यह संदेह और असहजता बढ़ रही है कि चीन के अधिक दखल के कारण पाकिस्तान की संप्रभुता कम हो रही है। वे इसकी कोशिश भी करेंगे और ऐसा करेंगे भी। अहम बात यह है कि भारत के खिलाफ अधिक तीव्रता वाले युद्ध की योजना बनाने में पाकिस्तान की क्षमता बढ़ती जाएगी।

सटीक जानकारी मिलना मुश्किल है, लेकिन पाकिस्तान में हथियार निर्माण की तस्वीर भारत की अपेक्षा तेजी से सुधर रही है। चूंकि पाकिस्तान ऑर्डनेंस फैक्टरी पश्चिम एशिया के देशों समेत कुछ देशों को भारी मात्रा में हथियारों का निर्यात करती हैं, इसीलिए अपने वास्ते क्षमता बढ़ाना उसके लिए मुश्किल नहीं होगा। साथी पश्चिम एशिया में कई टकराव चलते रहने से कुछ हथियारों का तुरंत परीक्षण करने का परोक्ष अवसर भी मिल जाता है। पूरी दुनिया को यह समझने की जरूरत है कि यदि चीन-पाकिस्तान-उत्तर कोरिया परमाणु अस्त्र और मिसाइल प्रौद्योगिकी से पारस्परिक लाभ सकते हैं तो पारंपरिक हथियारों में वे और भी आगे जा सकते हैं।

‘छोटे’, सघन युद्धों की योजना में जोखिम

भारत का पारंपरिक युद्ध लड़ने का अनुभव छोटी अवधि और मध्यम से लेकर कम तीव्रता वाले टकरावों से भरा रहा है, लेकिन यह मानते हुए कि भविष्य में युद्ध छोटे और तीव्र होंगे, कुछ जोखिमों को कम करना आवश्यक है। इसके लिए राजनीतिक एवं सैन्य सामरिक अनुमानों में कुछ सीमा तक निश्चितता की आवश्यकता होगी, हालांकि उसमें सदैव त्रुटियां होती हैं। इन बातों पर विचार करें:

* यदि स्वयं युद्ध आरंभ करते हैं तो चीन/पाकिस्तान की तुलना में राजनीतिक उद्देश्य और लक्ष्य क्या होंगे?

* उनके बीच होने वाले कपट भरे गठबंधन के परिणाम क्या होंगे?

* यदि चीन/पाकिस्तान युद्ध शुरू करते हैं तो अलग-अलग राजनीतिक-सैन्य उद्देश्यों के लड़े जाने वाले युद्ध की तीव्रता क्या होगी? उतनी ही या शायद अधिक तीव्रता के साथ उनका मुकाबला करने के लिए क्या करना होगा?

* उपरोक्त अनिश्चितताओं को देखते हुए 10/20/25 दिनों के सघन युद्ध की योजना बनाने में कितना विश्वास किया जा सकता है?

इन प्रश्नों के बाद यह कल्पना भी करनी होगी कि ऐसे कम अवधि के लिए अधिक तीव्रता वाले युद्ध लड़ने और विजय प्राप्त करने के बाद हो सकता है कि हमारे अधिकतर हथियार और ऐसे हथियार चलाने वाले कुछ प्लेटफॉर्म खत्म हो जाएं। ऐसे में यदि कोई विरोधी अधिक ताकत के साथ एक और हमला बोलता है तो क्या होगा? ऐसा हो सकता है, नहीं? दूरदर्शिता यही कहती है कि हमें समझना हेागा कि एक युद्ध के बाद दूसरे के लिए तैयार रहने की आवश्यकता हो सकती है!

स्वदेशीकरण और फिर “भारतीयकरण” के सिवाय कोई विकल्प नहीं

तकनीक, ढुलाई, वित्त और आजीवन रखरखाव जैसे कई तथ्य हैं तो हमें इस बात का अधिक दूरदर्शिता भरा अनुमान लगाने के लिए प्रेरित करते हैं कि प्रत्येक प्रकार के वर्तमान एवं भावी आयुधों का वॉर वेस्टेज रिजर्व और कितना न्यूनतम स्वीकार्य जोखिम स्तर के अनुसार कितना विनिर्माण एवं भंडारण करना चाहिए। इन सभी तथ्यों को साथ मिलाने से जोड़ने से जो लाभ होता है, वह भी स्वदेशीकरण बढ़ाने से बढ़ जाएगा। उसके कारण ये हैं:

Image Courtesy: Mathrubhumi

* किसी भी विदेशी विनिर्माता (ओईएम) को मध्यम जीवनकाल वाले आयुधों और अधिक महत्वपूर्ण लेकिन महंगे और रखरखाव/भंडारण के सख्त नियमों वाली प्लेटिनम समूह की धातुओं (पीजीएम) का ठेका कम मात्रा में देना चाहिए। इससे न केवल धन की बचत होगी बल्कि युद्ध क्षमता को खतरे में डाले बगैर कई वर्षों तक धन खर्च किया जा सकेगा।

* सेना, डीआरडीओ, सार्वजनिक उपक्रमों/सार्वजनिक रक्षा उपक्रमों और निजी कंपनियों के बीच गठजोड़ के जरिये गढ़ाई, ढलाई, विस्फोटकों और फ्यूज, निर्देशन, होमिंग और प्रपल्शन प्रणालियों के अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) में कई प्रयास किए जा सकते हैं। इसे समझने के लिए पिछले कुछ दशकों में नेशनल आर्मामेंट इंस्पेक्टर (एनएआई) के सदस्यों द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्य को बारीकी से देखना होगा। सेना ने भारतीय नौसेना के ऊपर से नीचे तक प्रशिक्षित और सभी प्रकार के कार्य करने वाले जवानों के समतुल्य संभवतः कभी कुछ तैयार ही नहीं किया। यदि सभी जगह स्वदेशीकरण को यथार्थ में लाना है तो एनएआई जैसी संस्थाओं में अथवा अलग से कई अधिकारियों और वायुसेना अधिकारियों/नाविकों को तलाशना होगा, बढ़ावा देना होगा और पूरा समर्थन भी देना होगा।

* मात्रा कम हो तो भंडारण, रखरखाव आदि आसान हो जाता है। भारी भंडार को यहां से वहां ले जाने में लागत बहुत अधिक होती है लेकिन यह कवायद हर बार जरूरी नहीं होती।

* आयातित आयुधों के जीवन अथवा उपयोग की अवधि (एलई) बढ़ाने में बहुत झंझट होते हैं, जैसे अधिक खर्च होता है, आवश्यकता से अधिक निरीक्षण और दखल होता है, ओईएम के भीतर विशेषज्ञता और कल-पुर्जों की कमी हो जाती है। सेना के सभी अंगों के पास इस संबंध में अपने-अपने उदाहरण होंगे।

* अतः पीजीएम के लिए आईडीडीएम श्रेणियों के अंतर्गत स्वदेश में ही विकास होने से न केवल कम खर्च और झंझटों के साथ उपयोग की अवधि बढ़ेगी बल्कि उन्नयन भी बेहतर तरीके से होगा क्योंकि उसके विशेषज्ञ देश के ही निवासी होंगे।

* छोटी खेपों, लेकिन क्षमता बढ़ाने के आश्वासन के साथ लगातार विनिर्माण जारी रखा जा सकता है। इस मामले में महत्वपूर्ण बात यह है कि क्षमता बढ़ाने के लिए पूरा अथवा आंशिक पूंजीगत खर्च सरकार उठा सकती है ताकि सार्वजनिक उपक्रम और निजी कंपनियां ऐसी क्षमताएं हासिल कर सकें, लेकिन शेयरधारकों एवं सरकार के प्रति जिम्मेदार हों।

* क्षमता बढ़ने से आयुधों का निर्यात हो सकेगा, जिसमें हम क्षमता होने के बाद भी पिछड़े हुए हैं। शायद ही कोई ऐसा देश हो, जो भारत से ऐसे हथियार खरीदेगा, जिन्हें खुद हमारी सेना इस्तेमाल नहीं करती या जिन्हें भारत में ही बनाया हुआ नहीं माना जाता।

* क्षमता बढ़ेगी तो “एक के बाद दूसरे युद्ध” के लिए तैयार हो सकेंगे और हथियारों का प्रभाव बढ़ाने के लिए सीखे हुए सबकों का फायदा उठाया जा सकेगा।

इस प्रकार प्रत्येक प्रकार के हथियार का स्वदेशीकरण करने में बहुत अधिक लाभ ही नहीं हैं बल्कि ऐसा नहीं करने के जोखिम भी बहुत अधिक हैं। हमारे सामने मजबूत, लगभग पूरी तरह स्वदेशी क्षमता वाला विरोधी चीन है, जिसके साथ सैन्य संघर्ष किसी भी समय हो सकता है। जिन सामरिक विशेषज्ञों को युद्ध के लिए पूर्ण तैयारी के जरिये उसे रोकना चाहिए, उन्हें उन लोगों से किसी प्रकार का आश्वासन नहीं मिल सकता, जिनका मानना है कि चीन के साथ युद्ध की संभावना पर बात करने भर से युद्ध आरंभ हो जाएगा। किसी को रोकने के लिए डरने या मनाने के बजाय ताकत हासिल करना बेहतर तरीका है। चीन का शासक वर्ग और उनके उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाई जाने वाली रणनीतियां इस बात को अच्छी तरह से समझती हैं।

(इस श्रृंखला का अंतिम लेख यह देखने का प्रयास करेगा कि हथियारों के स्वदेशीकरण पर वर्तमान जोर जल्द ही यथार्थ में बदल सकता है और हमें अपने खर्च का बेहतर परिणाम मिलेगा।)

रियर एडमिरल (सेवानिवृत्त) सुदर्शन वाई श्रीखंडे

(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of BharatShakti.in)


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Rear Admiral Sudarshan Y. Shrikhande , AVSM, IN (Retd)
RADM Shrikhande graduated from the NDA in June 1979. His  qualifications include Masters with Distinction from the Soviet Naval War College, (1985-88) in ASW and Weapon Engineering; Msc From Staff College(1995);  MPhil from the Indian Naval War College  and Highest Distinction from the US Naval War College( 2003). He has served long years at sea, including as XO of INS Delhi, and in command of  three ships. He was defence attaché in Australia and to some South Pacific nations. He has been Commander War Room/ NHQ, Director IN Tactical Evaluation Group and member of the IN’s Strategy and Operations Council. In flag rank he has been head of Naval Intelligence; Chief of Staff of SNC; Joint HQ staff duties and in the nuclear forces command and retired in 2016 as  Flag Officer Doctrines and Concepts. He continues teaching at several institutions including the NDC, all War colleges and the CDM as well as the NDA and INA spanning strategy, operational art,  RMA, Peloponnesian War, Arthashastra, geopolitics, maritime history, leadership and ethics. He has participated in Track 2 discussions   and been associated with the VIF, ORF, Takshashila, the  NSCS  as well as other institutions. He is an adjunct professor at the  Naval War College, Goa and with Takshashila. He is  the editor-in-chief of the Indian Naval Despatch.   He has presented papers in several  Indian and international conferences and is pursuing his PHD in  sea-based nuclear deterrence. He writes for some Indian and foreign portals and journals. He lives in Goa and helps in honorary  capacities  with the State  ESM welfare committees  and  until recently with the Navy Foundation.

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