संयुक्त राष्ट्र में सुधारः क्या तीसरे विश्वयुद्ध का इंतजार कर रही है दुनिया

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संपादक की टिप्पणी

प्रस्तुत लेख संयुक्त राष्ट्र और उसमें सुधार की जरूरत की वास्तविक तस्वीर पेश करता है। लेखक ने इस संगठन में सुधार की जरूरत को लेकर कई वैश्विक नेताओं के वक्तव्य उद्धृत किए हैं, लेकिन संगठन अपने सदस्य देशों के संकीर्ण हितों से बंधा हुआ है और वक्त के तकाजे के अनुरूप अपने कार्यों को पुनर्व्यवस्थित करना या अपने आपको पुनर्संगठित करना मंजूर नहीं कर रहा।

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जैसे ही रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने प्रायोजित जनमतसंग्रह के बाद यूक्रेन के चार क्षेत्रों को कब्जे में लेने की घोषणा की, सुरक्षा परिषद समेत संयुक्त राष्ट्र में सुधार पर चर्चा होने लगी, अभी-अभी समाप्त हुई इसकी सालाना बैठक के ठीक बाद। दस दिनों की अपनी अमेरिका यात्रा के आखिर में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि सुधार की जरूरत को हमेशा के लिए टाला नहीं जा सकता। सभी सदस्य राष्ट्रों के सामूहिक प्रयास से ही यह काम हो सकता है। सुरक्षा परिषद में सुधारों पर उन्होंने कहाविरोध करने वाले सुधार की प्रक्रिया को हमेशा के लिए बंधक नहीं बनाए रख सकते उन्होंने कहा, बहुध्रुवीयता, पुनर्संतुलन, न्यायपूर्ण वैश्वीकरण और सुधरी हुई बहुपक्षीयता को टालते नहीं रहा जा सकता।

पिछले सप्ताह संयुक्त राष्ट्र को संबोधित करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा, वक्त आ गया है, जब संयुक्त राष्ट्र को ज्यादा इनक्लूसिव होना चाहिए ताकि आज की दुनिया की जरूरतों पर बेहतर रिस्पॉन्स दिया जा सके।

इसके विस्तार का जो भी फार्मूला निकाला जाए, उसके कुछ न कुछ आलोचक होंगे, और संयुक्त राष्ट्र के पांचो स्थायी सदस्य राष्ट्रों में से कोई न कोई उस प्रस्ताव को वीटो कर देगा क्योंकि ऐसे सुधार आखिरकार उनकी ताकत में कमी करेंगे जो वे नहीं होने देना चाहेंगे। विडंबना यह है कि दुनिया के अग्रणी उदार लोकतांत्रिक देश खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे हैं क्योंकि ज्यादा से ज्यादा दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी पार्टियां दुनिया को उस ओर ले जा रही हैं जहां और अधिक अलगाव है, जहां आप्रवास (इमिग्रेशन) और प्रवास (माइग्रेशन) राष्ट्रीय चुनावों के दौरान महत्वपूर्ण मुद्दा बन जाते हैं। ऐसे में नियम आधारित विश्व व्यवस्था, सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स, जलवायु परिवर्तन, संप्रभु राष्ट्रों की क्षेत्रीय अखंडता और गरीबी उन्मूलन की बातें अक्सर महज बातें बनकर रह जाती हैं। डिस्टोपियन दुनिया में रहते हुए किसी ऐसे यूटोपिया का आभास देना तत्काल बंद कर देना चाहिए जिसका सपना आज के नेता देख रहे हैं और सोचते हैं कि बिना किसी प्रयास के वह साकार हो जाए।

सेंट पीटर्स स्क्वेयर में अपने ताजा संबोधन में पोप फ्रांसिस ने यूक्रेन के इलाकों पर कब्जा करने के पुतिन के ताजा कृत्य की निंदा करते हुए उसे अंतरराष्ट्रीय कानूनों के खिलाफ बताया। उन्होंने पुतिन से गिड़गिड़ाता हुआ सा अनुरोध किया कि यूक्रेन में हिंसा और मौत का दिनोदिन तेज होता सिलसिला रोकें और यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की से कहा कि शांति के किसी भी गंभीर प्रस्ताव के प्रति खुलापन रखें। इस युद्ध के निहितार्थों की गूंज दुनिया भर में सुनाई दे रही है। जहां यूरोप भयावह सर्दियों की ओर बढ़ रहा है वहीं ग्लोबल इकॉनमी सुस्ती के खतरे से दो-चार हो रही है।

दूसरी तरफ चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने इसी महीने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मेलन से पहले देश के सामने मौजूद बड़े खतरों और भीषण संघर्षों का जिक्र किया। अभूतपूर्व रूप से तीसरा कार्यकाल सुनिश्चित करने के प्रयासों के तहत शी चिनफिंग ने लोगों को आगाह किया कि देश का कायाकल्प करने के चीन के प्रयासों के इस आखिरी चरण में भरपूर खतरों और चुनौतियों का सामना करना होगा।

संयुक्त राष्ट्र दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 1945 में अस्तित्व में आया जब 51 देशों ने साथ आकर अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा कायम रखने, विभिन्न देशों के बीच दोस्ताना संबंध विकसित करने और बेहतर जीवन स्तर, मानवाधिक और सामाजिक विकास सुनिश्चित करने का संकल्प लिया। जर्मनी उस समय साझा दुश्मन था और द्वितीय विश्वयुद्ध ने जो तबाही मचाई थी, उसने विभिन्न देशों को संयुक्त राष्ट्र स्थापित करने के लिए एकजुट किया। धीरे-धीरे जब संगठन विकसित हुआ और कई शाखाओं में रूपांतरित हुआ, तब टिकाऊ विकास, मानवीय आधार पर सहायता और जलवायु परिवर्तन भी हासिल करने लायक लक्ष्य बने।

आज संयुक्त राष्ट्र में 193 सदस्य राष्ट्र हैं और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांचो स्थायी सदस्यों की निष्ठाएं बंटी हुई हैं। अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस एक तरफ हैं तो रूस और चीन दूसरी तरफ। हालांकि उस समय से काफी प्रगति हुई है, लेकिन धीरे-धीरे यह धारणा बनने लगी है कि मौजूदा व्यवस्था युद्धों को रोकने में असमर्थ है और यह धारणा जोर ही पकड़ती दिख रही है।

क्या दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध या परमाणु युद्ध के बाद ही इन बदलावों की ओर बढ़ेगी?  संयुक्त राष्ट्र की सालाना बैठकों का इस्तेमाल उन मुद्दों पर सर्वसम्मति बनाने के लिए करना होगा जो सदस्य राष्ट्रों के साथ ही वैश्विक आबादी को भी चिंतित किए हुए हैं जिसका भावी अस्तित्व और विकास आज के वैश्विक नेताओं पर निर्भर करता है।

विभिन्न देशों के निर्वाचित नेताओं की यह जिम्मेदारी है कि वे संकीर्ण निहित स्वार्थों से ऊपर उठें और उन बदलावों को लागू करें जो अमल के इंतजार में हैं। इससे पहले कि कोई आपदा आकर इसके लिए मजबूर करे और पूरी मनुष्यता को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़े। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था, खुद उस परिवर्तन को धारण करें जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं।समय आ गया है जब हमें जरूरी प्रयत्न किए बगैर आज की निराशाजनक दुनिया से अलग, भविष्य की सुंदर दुनिया के सपने देखते रहना छोड़ देना चाहिए।

एवीएम अनिल गोलानी (रिटायर्ड)


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Air Vice Marshal Anil Golani (Retd)
The officer was commissioned into the Fighter Stream of the IAF on 29 Dec 1982. Total Flying experience of more than 3000 hours which includes more than 1000 hrs of instructional flying. A Qualified Flying Instructor and an Instrument Rating Instructor and Examiner Fully Ops on the erstwhile Ajeet and Jaguar aircraft. Raised and commanded the first Harpy (Pechora III) squadron of the IAF. Commanded an Air Defence Direction Centre (47 SU) and an operational base (AF Stn Gorakhpur). One of the few to have served in senior ranks in both the Joint Services Commands of the country. Andaman & Nicobar Command as the Air Force Component Commander and Strategic Forces Command as the Chief Staff Officer (Air Vector). The other joint services appointments include Air Officer Commanding Maritime Air Ops in Mumbai and Chief Instructor, Air Force, at Defence Services Staff College, Wellington. Has done the Staff Course, Higher Air Command Course and a year’s course in International Security & Strategy at the Royal College of Defence Studies, London.

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