संपादक की टिप्पणी
रेयर अर्थ मेटल्स की कम मात्रा औऱ बहुत कम देशों में उपलब्धता उन देशों को अपना दबदबा बनाने के लिए एक हथियार के तौर पर इसका इस्तेमाल करने की ताकत दे देती है जिनके पास इसका अपेक्षाकृत बड़ा भंडार है। वर्तमान में चीन इस स्थिति में है। भारत में यह संभावना है कि वह इन रेयर अर्थ मेटल्स का खनन कर इस सेक्टर में चीन की सामरिक बढ़त को काफी हद तक संतुलित कर सकता है।
…………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
आत्मनिर्भरता की भारत की कोशिश एक सपने से नीति में तब्दील की जा चुकी है। यह नीति नीचे से ऊपर की ओर नहीं गई बल्कि ऊपर से नीचे की तरफ आरोपित हुई है। सीधे शब्दों में इसका मतलब यह है कि हालांकि प्रोडक्ट ‘मेड इन इंडिया’ होते हैं, लेकिन इनमें आयातित उपकरण भी लगे होते हैं। पहले स्वदेश निर्मित विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत की बात करें तो उसमें 76 फीसदी देशी कल-पुर्जे लगे थे। मार्जिन इंजन जैसे अहम हिस्सों के लिए भी इसे विदेशी ओईएम्स (ऑरिजिनल इक्विपमेंट मैन्युफैक्चरर्स) पर निर्भर रहना पड़ा था।
चूंकि अंतिम तौर पर निकला उत्पाद स्वदेश निर्मित था, इसलिए इंडस्ट्री सेंटीमेंट लगातार इससे पॉजिटिव ढंग से प्रभावित रहा और इसे सुसंगत नीति माना जाता रहा। फिर भी बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था इससे लाभान्वित हो सके, इसके लिए जरूरी है कि उसे ‘बॉटम अप’ एप्रोच (नीचे से ऊपर की ओर वाले नजरिए) के साथ लागू किया जाए। तभी राह के रोड़े भी हटाए जा सकेंगे। उदाहरण के लिए महामारी के दौरान पूरी दुनिया ने भारत की फार्मास्युटिकल इंडस्ट्री की क्षमता को देखा, सराहा, लेकिन एक्टिव फार्मास्युटिकल इन्ग्रीडिएंट्स (एपीआई) के मामले में चीन पर निर्भरता के चलते सप्लाई लाइन बाधित हो गई। यही मौका है जब चीन की ही तर्ज पर रेयर अर्थ मेटल्स को अपनी आत्मनिर्भरता नीति के दायरे में ले आया जाए।
रेयर अर्थ मेटल्सः मोबाइल से पनडुब्बी तक
रेयर अर्थ मेटल्स में सीरियम, डिस्प्रोजियम, अर्बियम, यूरोपियम, गैडलिनियम, होल्मियम, लैंथनम, ल्यूटीशियम, नियोडिमियम, प्रैजियोडिमियम, प्रोमिथियम, समेरियम, स्कैंडियम, टर्बियम, थूलियम, इटर्बियम और इट्रियम आते हैं। आज की दुनिया में इसकी अहमियत से ज्यादा लोग वाकिफ नहीं हैं। लेकिन रेयर अर्थ मेटल्स ग्लास इंडस्ट्री से लेकर स्थायी धातुओं तक हर जगह इस्तेमाल होते हैं। इनकी जरूरत हर ऑडियो डिवाइस, स्पीकर्स, हेडफोन, मोबाइल फोन और रेडियो में होती है। इसके अलावा ये इलेक्ट्रिक टर्बाइन्स, जेनरेटर्स, स्क्रीन्स औऱ एय़र डिफेंस सिस्टम्स का भी जरूरी हिस्सा होती हैं।
अमेरिकी सरकार के एक थिंक टैंक ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया कि एक एफ-35 लड़ाकू विमान में करीब 420 किलोग्राम रेयर अर्थ मेटल्स होते हैं। आर्लीग बर्क डीडीजी-51 डिस्ट्रॉयर के लिए करीब 2300 किलोग्राम और एसएसएन-774 वर्जिनिया क्लास पनडुब्बी के लिए करीब 4,200 किलोग्राम रेयर अर्थ मेटल्स की जरूरत होती है।
हर आधुनिक उपकरण में, चाहे वह रक्षा से जुड़ा हो या असैन्य उपयोग से, कुछ न कुछ मात्रा में रेयर अर्थ मेटल्स होते हैं। इनके इस व्यापक उपयोग की वजह से ऐसा हो गया है कि जिसका भी इनकी सप्लाई पर नियंत्रण है, उसका पूरी दुनिया में प्रभाव हो जाता है। रेयर अर्थ मेटल्स चीन और अमेरिका के बीच विवाद का कारण रहे हैं। चीन मार्केट में अपने दबदबे का इस्तेमाल जापान के खिलाफ पहले ही कर चुका है, जब चीनी मछलीमार जहाज सेनकाकू द्वीप के पास जापानी तटरक्षकों से टकरा गए थे। चीन ने तब जापानी कारनिर्माताओं और इलेक्ट्रॉनिक्स मैन्युफैक्चर्रस के लिए निर्यात का कोटा कम कर दिया जिसका प्रभाव जापान ने तत्काल महसूस किया।
रेयर अर्थ मेटल्स का वैश्विक भंडार करीब 12 करोड़ टन का माना जाता है जो चीन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, बुरुंडी, भारत, मलेशिया, म्यांमार, रूस, थाइलैंड और वियतनाम में फैला हुआ है। अस्सी के दशक तक अमेरिका इनका सबसे बड़ा उत्पादक था। उसके बाद चीन ने अपने भंडार का इस्तेमाल करने की एक विस्तृत योजना तैयार की। आज दुनिया के कुल उत्पादन का 90 फीसदी चीन में हो रहा है।
परिशोधन के तरीके
मार्केट लीडर के रूप में अपनी स्थिति पक्की कर लेने के बाद चीन ने अपनी राष्ट्रीय रिफाइनरीज में सुधार लाने शुरू किए। हाल ही में चीनी शोधकर्ताओं ने रेयर अर्थ मेटल्स रिफाइन करने के नए तरीके पर एक पेपर पब्लिश किया है। इसने उन आरंभिक चुनौतियों से निपटना आसान बनाया जो ये रेयर अर्थ मेटल्स लाते हैं और जिनकी वजह से इन्हें रेयर (दुर्लभ) कहा जाता है। इस विशेषण के पीछे इन धातुओं को साफ करने में होने वाली कठिनाइयां हैं। यह अपने आप में बड़ी जटिल प्रक्रिया रही है।
पारंपरिक तरीके में अमोनियम सल्फेट का इस्तेमाल सफाई के लिए और अमोनियम बाइकार्बोनेट का इस्तेमाल अशुद्धियों को दूर करने के लिए होता है। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले ये केमिकल्स रेयर अर्थ धातुओं के इस्तेमाल में सबसे बड़ी बाधा रहे हैं। हाल में सामने आए चीनी तरीके में कलई चढ़ाने की प्रक्रिया अपनाते हुए रेयर अर्थ मेटल्स को साफ करने के लिए बिजली और आयन का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रक्रिया में रिकवरी रेट ज्यादा है और इसकी रफ्तार भी तेज रहती है। इसमें 36 फीसदी ज्यादा रिकवरी हासिल हो जाती है, वह भी करीब आधे समय में। चीन ने अपना बाओटॉ प्रोसेसिंग साइट तब स्थापित किया जब वैश्विक उत्पादन में अमेरिका सबसे ऊपर था। समय के साथ अमेरिका में पर्यावरण को होने वाले नुकसान के मद्देनजर उत्पादन कम होता गया जबकि चीन में उत्पादन बढ़ता रहा।
बढ़ती वैश्विक मांग के बीच चीन ने लगातार पांचवें साल माइनिंग कोटा बढ़ाते हुए इसमें 25 फीसदी की वृद्धि की है। अपनी स्थिति को और मजबूत करने के लिए चीन अफ्रीका में रेयर अर्थ एलीमेंट्स के खनन में निवेश कर रहा है। उत्तर अमेरिका के प्रमुख खनिज उत्पादकों का अंदाजा है कि युद्ध की स्थिति में चीन इस क्षेत्र को होने वाले निर्यात पर रोक लगा सकता है। मांग और देशी आपूर्ति में अंतर इतना ज्यादा है कि अमेरिकी भंडार महज 90 दिन के अंदर खत्म हो जाएगा।
अमेरिकी डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसी (डीएआरपीए) ने भी इसकी प्रोसेसिंग प्रक्रिया को बेहतर बनाने के प्रयोग किए हैं। ध्यान रहे, रेयर अर्थ मेटल्स का खनन कर लेने के बावजूद खुद इसे प्रोसेस नहीं कर पाता है। अक्सर यह इनका सिर्फ इसलिए निर्यात करता है कि प्रोसेस किया हुआ रेयर अर्थ मेटल्स आयात कर सके। डीएआरपीए का एन्वायरनमेंटल माइक्रोब्स एज ए बायोइंजीनियरिंग रिसोर्स (ईएमबीईआर) अय़स्क से रेयर अर्थ मेटल्स को कुशलतापूर्वक निकालने के लिए डिजाइनर माइक्रोब्स का इस्तेमाल करने की बात करता है।
दुनिया के कुल 12 करोड़ टन भंडार में 69 लाख टन भारत में होने की बात कही जाती है। 4.4 करोड़ टन के चीनी भंडार से इसकी तुलना नहीं हो सकती, लेकिन यह इतना तो है ही कि भारत को इस मामले में आत्मनिर्भर बना दे। फिर भी भारत अभी रेयर अर्थ मेटल्स के लिए सौ फीसदी आयात पर ही निर्भर है। भारत इस विचित्र स्थिति से उपजी चुनौतियों का एहसास कर रहा है। क्वाड (भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया) सदस्य राष्ट्रों के साथ आने और क्वाड क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नॉलजी वर्किंग ग्रुप बनाने का आधार इन खनिजों ने ही मुहैया कराया।
क्रिटिकल मिनरल्स (संवेदनशील खनिज पदार्थों) पर क्वाड वर्किंग ग्रुप का बनना कोई संयोग नहीं है। हम देख चुके हैं कि रेयर अर्थ मेटल्स में चीनी वैश्विक दबदबे की कीमत जापान को किस तरह से चुकानी पड़ी। ऑस्ट्रेलिया लिथियम जैसे अपने रेयर अर्थ मेटल्स के इस्तेमाल को लेकर पहले ही अमेरिका से बात करता रहा है। वह चीन पर निर्भर किसी भी सप्लाईचेन से कड़ाई से निपटने की नीति अपना चुका है। क्रिटिकल मिनरल्स के मामले में चीन एकमात्र स्रोत है। रेयर अर्थ मेटल्स का उत्पादन और परिशोधन करने वाली चीन से बाहर की इकलौती बड़ी कंपनी लिनस रेयर अर्थ्स को अमेरिका में एक प्रोसेसिंग प्लांट खड़ा करने के लिए कहा गया है।
क्वाड देशों (भारत छोड़कर) सहित पश्चिमी देशों के एक ग्रुप ने मिनरल्स सिक्यॉरिटी पार्टनरशिप (एमएसपी) भी बनाई है। यह ग्रुप सामरिक अवसर विकसित करने की दिशा में निवेश जुटाने की कोशिश करेगा।
भारत में रेयर अर्थ मेटल्स के लिए रोडमैप
भारत को रेयर अर्थ मेटल्स के संबंध में भी वैसी ही नीति अपनानी होगी जैसी ऑयल रिफाइनरी इंडस्ट्री को लेकर इसकी नीति रही है। कच्चा तेल आयात पर अत्यधिक निर्भरता के बावजूद भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा तेल ऑयल रिफाइनिंग हब है। 2001 तक भारत इस सेक्टर में घाटा झेल रहा था। आज यह न केवल आत्मनिर्भर है बल्कि सालाना 24.89 करोड़ मीट्रिक टन उत्पादन के साथ यह क्वालिटी पेट्रोलियम उत्पादों का प्रमुख निर्यातक है।
क्वालिटी प्रोसेसिंग में निवेश पर ध्यान देना भारत को कच्चे तेल की ही तरह रेयर अर्थ मेटल्स के मामले में भी विभिन्न देशों का पसंदीदा पार्टनर बना सकता है। अमेरिका भी अपने घरेलू सप्लाई को उस रेट पर प्रोसेस नहीं कर पा रहा जिससे कि चीन से होने वाला आयात बंद किया जा सके। अगर भारत एक विकल्प बनता है तो अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान प्रोसेस्ड रेयर अर्थ एलीमेंट्स की सप्लाई के मामले में चीन पर निर्भरता कम करेंगे। भारत इस दिशा में आगे बढ़ता दिख रहा है।
भारत के एग्जिम बैंक ने ‘दक्षिण अफ्रीका से भारत के संबंधों को पुनर्जीवित करते हुए’ शीर्षक एक रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया है कि भारत क्रिटिकल मिनरल्स के स्रोत के रूप में अफ्रीका का इस्तेमाल करे और उसका फायदा उठाए। ज्यादातर अफ्रीकी देश इन खनिज संसाधनों के मामले में काफी समृद्ध हैं लेकिन उन्हें खनन और इससे जुड़ी अन्य गतिविधियों को अंजाम देने वाली कंपनियों की दरकार है। इस सेक्टर में भारत के निवेश से खनिज अयस्कों की सप्लाई सुनिश्चित हो जाएगी जिसे देश में ही प्रोसेस किया जा सकता है।
पब्लिक सेक्टर की मिनी-रत्न कंपनी इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड (आईआरईएल) और भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (बीएआरसी) के युरेनियम एक्सट्रैक्शन डिविजन को देश में रेयर अर्थ मेटल्स के खनन और परिशोधन की जिम्मेदारी सौंपी गई है। परमाणु ऊर्जा विभाग के आण्विक खनिज डिविजन औऱ जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया इसकी खोज में लगे हैं। विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर और डिफेंस मेटालर्जिकल रिसर्च लेबोरैटरी (डीएमआरएल) को संयुक्त उद्यम के रूप में भारतीय स्पेस इंडस्ट्री के लिए ‘परमानेंट मैग्नेट्स’ विकसित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। तीन अन्य पीएसयूज- नैशनल अल्युमिनियम कंपनी लिमिटेड (नालको), हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड (एचसीए) और मिनरल्स एक्सप्लोरेशन कॉरपोरेशन लिमिटेड (एमईसीएल) ने एक संयुक्त उद्यम- खनिज बिदेश इंडिया लिमिटेज- स्थापित किया है जो सामरिक रेयर अर्थ मेटल्स का पता लगाएगा, इसे हासिल करेगा और परिशोधित करेगा। खनिज बिदेश लैटिन अमेरिका पर ध्यान केंद्रित करने वाला है।
भारत की प्राथमिक चिंता तकनीकी विकास की होनी चाहिए। भारत को एमएसपी से बाहर रखने के पीछे भी विशेषज्ञता की कमी है। भारत को खोज, खनन और परिशोधन शुरू करने के लिए ऑस्ट्रेलिया और जापान (दोनों क्वाड सदस्य) जैसे मित्र देशों के साथ अपने संबंधों का फायदा उठाना होगा। यह देखते हुए कि प्रोसेसिंग अमेरिका के लिए भी कठिन साबित हो रहा है, भारत को उन तमाम देशों के लिए प्रोसेसिंग हब बनना होगा जो चीन का विकल्प तलाश रहे हैं। वैश्विक बाजार में आने वाला यह बदलाव आत्मनिर्भरता की नीति की नई ‘पोस्टर स्टोरी’ बन सकता है। रेयर अर्थ मेटल्स इस आह्वान को सही मायनों में चरितार्थ करने का साधन बन सकते हैं- मेक इन इंडिया फॉर द वर्ल्ड (भारत में बनाएं, दुनिया के लिए)।
गिराश लिंगन्ना, डिफेंस एंड एरोस्पेस एनालिस्ट