दलाई लामा का दांव क्यों चलता है चीन!

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संपादक की बात

दलाई लामा तिब्बतियों की पहचान बने हुए हैं। चीनियों की तमाम कोशिशों के बावजूद तिब्बत पर उनकी गहरी छाप है। वे तिब्बतियों की जिंदगी के हर हिस्से में मौजूद हैं और चीन के लिए लगातार चिंता का कारण बने हुए हैं। यदि अमेरिका के मनोनीत राष्ट्रपति दलाई लामा से जल्द मुलाकात करने का फैसला करते हैं तो चीनी और भी आगबबूला हो सकते हैं, जो ताइवान की राष्ट्रपति को ट्रंप द्वारा फोन किए जाने से पहले ही नाराज हैं। भारत ने हमेशा दलाई लामा का समर्थन किया है। इस लेख में लेखक बता रहे हैं कि तिब्बत और उसके नेता दलाई लामा के प्रति हमारा रुख कैसा होना चाहिए।

दलाई लामा का दांव क्यों चलता है चीन!

Image Courtesy: The Diplomat

दलाई लामा जब से चीन से भागकर भारत आए और तिब्बत की निर्वासित सरकार का गठन किया तभी से चीन देश के भीतर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी सभी गतिविधियों और संपर्कों पर आपत्ति जताता रहा है। उसके पास भारत को अपना शत्रु मानने का एक कारण यह भी है कि भारत ने तिब्बत के उन नेताओं को अपने यहां शरण दी, जिन्हें वह तिब्बत में हिंसा के लिए जिम्मेदार मानता है। उसने दलाई लामा के विश्व नेताओं से मिलने, विदेश तथा भारत के भीतर यात्रा करने, अरुणाचल प्रदेश में मठों की यात्रा करने पर आपत्ति दर्ज कराई है। पिछले कुछ समय में उसने मंगोलिया से कोयले और तांबे के आयात पर अतिरिक्त कर लगाकर उस देश को सजा दी। मंगोलिया उसके दबाव के आगे झुक गया और बौद्ध बहुल राष्ट्र होने के बावजूद उसने दलाई लामा को दोबारा कभी नहीं बुलाने का वचन दिया, धार्मिक कार्यक्रमों के लिए भी नहीं।

चीन ने दलाई लामा के राष्ट्रपति भवन जाने और राष्ट्रपति से बात करने पर भी आपत्ति जताई। भारत ने जवाब में कहा कि वह गैर राजनीतिक कार्यक्रम था, जो नोबेल पुरस्कार विजेताओं द्वारा बच्चों के कल्याण के लिए आयोजित किया गया था। प्रश्न खड़ा होता है कि क्या चीन दलाई लामा से डरता है या केवल दुष्प्रचार तथा दबाव डालने के लिए ऐसा किया जा रहा है?

भारत में अपने शुरुआती दिनों में दलाई लामा तिब्बत पर चीन के कब्जे के लिए खतरा हो सकते थे क्योंकि उस राष्ट्र का चीन में एकीकरण बाकी था और जनता दलाई लामा का अंधानुकरण करती थी। विद्रोह शुरू हो गए, दुनिया ने चीनी कब्जे पर एतराज जताया, जबकि चीन ने बलपूर्वक जनता का दमन आरंभ कर दिया। विद्रोह को बर्बरता से कुचलने तथा सामूहिक हत्याएं करने के उसके कृत्यों की दुनिया भर में निंदा हुई, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। तिब्बत पर चीन के कब्जे को पचास वर्ष हो चुके हैं। समय बीतने के साथ उसने मुख्य भूमि के साथ तिब्बत का संपर्क बढ़ा लिया, अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ा ली और क्षेत्र की जनांकिकी बदलने के मकसद से भारी संख्या में हान चीनियों को वहां बसा दिया। तिब्बत पर अभी वह कठोर नियंत्रण रखता है और किसी भी आंदोलन को निर्दयता से कुचल देता है।

भारत ने तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग मान लिया है, जबकि चीन ने केवल सिक्किम को मान्यता दी है, अरुणाचल को नहीं। भारत अब भी अक्साई चिन पर दावा करता है, लेकिन उसे यह भी पता है कि उसे वापस पाना आसानी से संभव नहीं होगा। भारत अपने इस फैसले पर अडिग है और ताइवान को चीन का अटूट हिस्सा बताने वाली ‘एक चीन’ नीति पर वह कभी सहमत नहीं हुआ है। इस तरह उसने चीन को उसके ही घर में चुनौती देने का रास्ता खुला रखा है। चीन ने अरुणाचल की आग को भड़काए रखा है और वहां किसी की भी

यात्रा को वह अतिक्रमण करार देता है, जैसा उसने अमेरिकी राजदूत के साथ और सरकार द्वारा दलाई लामा को यात्रा की अनुमति दिए जाने पर किया था। इसीलिए चीन को भारत से सीधा खतरा नहीं है फिर भी वह आग में घी डालता आ रहा है।

यदि भारत चीन की बात लेता तो भी कुछ नहीं बदलता। वह न तो एनएसजी में भारत के प्रवेश का समर्थन करता और न अजहर मसूद पर प्रतिबंध का समर्थन करता और न ही पाकिस्तान को कूटनीतिक सहायता कम करता। जब भारत ने चीन की आपत्ति मान ली और असंतुष्ट उइगर डोलकन इसा, न्यूयॉर्क में रहने वाले थियाननमेन चौक का विरोध करने वाले न्यूयॉर्क निवासी लू चिंगहुआ और हॉन्गकॉन्ग निवासी कार्यकर्ता रे वॉन्ग को धर्मशाला में अंतरधार्मिक सम्मेलन में आने के लिए वीजा नहीं दिया तब भी कुछ नहीं बदला। चीन हमेशा की तरह अड़ियल ही रहा। उसने कश्मीर विवाद पर अपना रुख भी बदलना शुरू कर दिया है और तटस्थ से अब वह पाकिस्तान समर्थक बनता जा रहा है। पूर्वोत्तर में उग्रवाद बढ़ने का कारण भी चीनी समर्थन को ही माना जा रहा है। भारत के साथ उसने जो दूरी बनाई है, वह भारत के इन कामों के बाद भी बरकरार रहेगी। तो भारत को चीन की आपत्तियों पर ध्यान भी क्यों देना चाहिए।

भारत ने चीन के इस तरह के दावों के खिलाफ आक्रामकता भरे संकेत देकर समझदारी ही दिखाई है। जब चीन ने मंगोलिया पर सख्ती दिखाई तो मंगोलिया ने भारत से मदद मांगी, जिसके लिए भारत फौरन तैयार हो गया और उसे 1 अरब डॉलर का कर्ज देने का प्रस्ताव रख दिया। मंगोलिया उसका इस्तेमाल करेगा या नहीं, यह अलग प्रश्न है, लेकिन इस प्रस्ताव से संदेश पहुंच जाता है। इसी तरह भारत ने देश के भीतर और विदेश में दलाई लामा की यात्राएं कम करने की चीन की आपत्ति को अनसुना करना शुरू कर दिया है। पिछली सरकारों ने चीन के अनुरोधों का मान रखते हुए दलाई लामा को अरुणाचल में संवेदनशील मठों की यात्रा से रोक दिया। लेकिन अब नहीं। भारत को अहसास हो गया है कि चीन के सामने कठोर और मजबूत विदेश नीति की जरूरत होगी और उसने वह नीति लागू करना शुरू कर दिया है।

Image Courtesy: Quartz

चीन के लिए दलाई लामा भी अरुणाचल और ताइवान की तरह एक और दांव सरीखे ही हैं, जिन्हें वह अपनी मर्जी से जब चाहे तब यह दिखाने के लिए चल देता है कि रिश्तों में खटास आ गई है। असल में उसे न तो दलाई लामा का और न ही तिब्बत में उनके प्रभाव का डर है। उसके पास किसी भी विद्रोह को कुचलने की क्षमता है। विद्रोह यूं भी आम तौर पर अहिंसक ही होते हैं। किंतु वह जानता है कि दलाई लामा एक दबाए हुए देश का प्रतिनिधित्व करते हैं और हमेशा यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि तिब्बत के हितों की ओर सभी का ध्यान रहे। असंतोष तथा विद्रोह से हिंसा और कठोरता के साथ निपटने के उसके तरीकों के प्रति दुनिया भर का जो दबाव है, उसे वह अनदेखा करता रहता है। जिन देशों के नेता दलाई लामा से मिलते हैं, उन पर दबाव डालकर वह दलाई लामा को अपराधी जैसा दिखाता रहता है। दलाई लामा की अरुणाचल यात्राओं का मामला भारत के समाने उठाना वर्तमान विवाद पर उसके आक्रामक रुख का संकेत देता है, जिस विवाद का समाधान हाल-फिलहाल नहीं दिखता।

भारत के लिए आने वाले दिनों में सकारात्मक बदलाव हो सकते हैं। अमेरिका के मनोनीत राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने एक-चीन की नीति पर खुलेआम प्रश्न उठाया है। ताइवानी राष्ट्रपति के साथ फोन पर उनकी बातचीत और उसके बाद किए गए ट्वीट अमेरिकी नीति में बदलाव आने और चीनी आपत्तियों को नजरअंदाज करने का संकेत देते हैं। दलाई लामा के साथ जल्द ही उनकी मुलाकात की बातें कही जा रही हैं, जो चीन को और भी आक्रोशित करेंगी। इससे तिब्बत के मसले को जल्द सुलझाने के भारत के रुख को मजबूत समर्थन मिलेगा। इसीलिए भारत को चीन की शिकायतें अनसुनी कर देनी चाहिए तथा दलाई लामा का समर्थन तब तक जारी रखना

चाहिए जब तक चीन यह संकेत नहीं देता है कि पाकिस्तान को अपने समर्थन के एवज में वह इस मसले पर बातचीत का इच्छुक है। यह दांव हमारे पक्ष में होगा।

मेजर जनरल हर्ष कक्कड़ (सेवानिवृत्त)

(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of BharatShakti.in)


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Maj Gen Harsha Kakar
Maj Gen Harsha Kakar was commissioned into the army in Jun 1979 and superannuated in Mar 2015. During his military service, he held a variety of appointments in every part of the country including J&K and the North East. The officer was the head of department in strategic studies at the college of defence management where he wrote extensively on futuristic planning and enhancing joint operations. He served as part of the United Nations peace keeping operations in Mozambique, where he was involved in forays deep into rebel territory and establishing camps in mine infested areas. In addition to training courses in India he attended the National Security Studies Course at the Canadian Forces College in Toronto. He was the first officer from India to attend the course. Post his superannuation, he has settled in Lucknow where he actively writes for two newspapers, The Statesman and The Excelsior of J&K and for the online newsletters, The Wire and Quint.

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