संपादक की बात
रक्षा खरीद नीति (डीपीपी) 2016 को क्रांतिकारी दस्तावेज बताया गया था। अड़ियल अफसरशाही का हस्तक्षेप कम करना, पारदर्शिता की शुरुआत करना, खरीद प्रक्रिया तेज करना, रक्षा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को गति प्रदान करना आदि इसके उद्देश्य थे। किंतु नई नीति क्रांतिकारी होने के बाद भी उद्योग प्रमुखों की शिकायतें नहीं थमी हैं, खरीद प्रक्रिया समय सीमा के भीतर पूरी नहीं हो रही है और कारोबार में अफसरशाही का अब भी बहुत दखल है। लेखक मानवीय आयाम की बात कर रहे हैं, जो किसी भी प्रक्रिया को कारगर बनाने में निर्णायक होते हैं और बता रहे हैं कि जानकारी की कमी सबसे बड़ी बाधा है।
रक्षा खरीद के मानवीय पहलू
रक्षा खरीद प्रक्रिया 2016 को रक्षा खरीद पक्रिया को बीमार बनाने वाली सभी समस्याओं की रामबाण औषधि माना गया था। निश्चित रूप से यह बहुत अच्छा दस्तावेज है। इसमें कई क्षेत्र दुरुस्त कर दिए गए हैं और कई संशय दूर कर दिए गए हैं। लेकिन एक और पहलू भी है। भारतीय दंड संहिता भी शानदार दस्तावेज है और भारत का संविधान भी। इन दस्तावेजों के शानदार होने के बावजूद अपराध जारी हैं, असमानता व्याप्त है और कई सामाजिक बुराइयां बेरोकटोक फलती फूलती हैं। दस्तावेज केवल उन लोगों के कारण अच्छे होते हैं, जो उनका क्रियान्वयन करते हैं। हमारा संविधान उतना ही महान अथवा कमजोर है, जितना हम भारत के नागरिक इसका पालन अथवा उल्लंघन करते हैं। इसी प्रकार डीपीपी 2016 उतनी ही मजबूत अथवा कमजोर होगी, जितने उसे लागू करने वाले लोग होंगे। हमें काम करते हुए रोज-रोज इसे खोलना और पलटकर देखना नहीं पड़ता है। वास्तव में अगर हम ऐसा करते हैं तो इसका बाधा बन जाना तय है।
यदि हमारी रक्षा खरीद को सफल होना है तो उसे पूरी श्रृंखला में मौजूद लोगों की जानकारी पर आधारित होना पड़ेगा। यही सबसे पहली और बुनियादी बात है। यहीं पर हम सबसे अधिक कमजोर पड़ जाते हैं। खरीद को कामयाब बनाना है तो प्रत्येक व्यक्ति को जानकारी चाहिए; जो किसी भी व्यक्ति की विशेषज्ञता से इतर होती है। इससे भी अधिक जरूरी यह समझना है कि हम क्या जानते हैं और हमारी कमजोरी क्या हैं। और यह भी कि हम उन्हें किस तरह सुधारें।
वर्दी का पहलू
वर्दी वाला शख्स यानी सैन्यकर्मी यह तो जानता है कि उसे किस वस्तु की आवश्यकता है। लेकिन उसे यह नहीं पता कि उस वस्तु को हासिल कैसे किया जाए। कारण यह है कि वह हथियारों और उपकरणों का प्रयोग करना तो जानता है लेकिन यह नहीं जानता कि उन्हें खरीदा कैसे जाए। इसीलिए जब वह खरीद का काम आरंभ करता है तो उसे कुछ भी पता नहीं होता। जब तक वह यह समझना शुरू करता है कि जरूरी वस्तु उसे किस तरह खरीदनी है तब तक उसे दूसरे काम पर लगा दिया जाता है; और दोबारा कभी खरीद का काम नहीं दिया जाता। आरंभ में उसे इस बात की भी कोई जानकारी नहीं होती कि सरकार कैसे काम करती है और सरकार, अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) संगठनों, सार्वजनिक उपक्रमों अथवा उद्योग में असैन्य व्यक्तियों के साथ कैसे काम करना है। वह सीधा-सादा काम जानता है, उसमें धैर्य की कमी होती है और उसे अधिक दुनियादारी भी नहीं आती। तकनीकी तौर पर भी वह कमजोर होता है। परिणाम यह होता है कि सेना की तकनीकी अफसरशाही उस पर हावी हो जाती है और उसे किनारे कर देती है।
उसे यह भी नहीं पता होता कि सेना की अफसरशाही से कैसे निपटना है। खरीद के काम में जुटने से पहले उसे दोबारा सीखने की जरूरत होती है। मैंने खरीद श्रृंखला में काम करने वाले कई अधिकारियों को यह कहते सुना है कि इस काम के दौरान उन्होंने बहुत कुछ सीखा है और जब उन्होंने यह काम हाथ में लिया था तो बहुत बातों के बारे में वे कुछ जानते ही नहीं थे। लेकिन हमें समझना चाहिए कि हथियार खरीदने और हासिल करने का कारोबार कोई प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम नहीं होता है।
अफसरशाही का दृष्टिकोण
असैन्य अफसरशाही का अधिकारी हरफनमौला हौता है। उसकी सबसे बड़ी योग्यता इस बात की बारीक समझ होती है कि सरकार कैसे काम करती है। जब वह काम शुरू करता है तो उसे उन ढेरों जटिल हथियारों के बारे में कुछ भी नहीं पता होता, जो खरीदे जाने हैं। इसीलिए वह हर मामले में एकदम शून्य से शुरुआत करता है। जहां संदेह नहीं होना चाहिए, वहां उसे संदेह होता है। ज्यादातर मामलों में उसे दाल में काला नजर आता है। वह बुनियादी बातों पर सवाल उठाना शुरू कर देता है। मददगार बनने के बजाय वह रुकावट बनने लगता है। जब उसे संदेह होता है तो वह मामले को दूसरों पर टालने लगता है या सवाल खड़े करने लगता है, जिससे पूरी प्रक्रिया सुस्त हो जाती है। वह किसी भी बात की जवाबदेही से बचने लगता है।
निर्णय लेना उसकी विशेषता नहीं होती और जोखिम लेने से वह हमेशा परहेज करता है। बड़ी समस्या यह होती है कि जिस काम को वह समझता नहीं, उसके लिए उसके भीतर प्रतिबद्धता भी नहीं होती है। उसके लिए यह महज एक केस या मामला होता है और सारे केस एक जैसे होते हैं। उसके लिए प्रक्रिया महत्वपूर्ण होती है और परिणामोन्मुखी सोच बहुत दुर्लभ होती है। वित्तीय अफसरशाह को जरूरत से ज्यादा महत्व मिल जाता है। वह हमेशा वित्तीय औचित्य और अतीत की बुराइयों का जिक्र कर सस्ते विकल्प तलाशने की बात कहेगा। उसे गुणवत्ता से कोई मतलब नहीं होगा।
अनुसंधान का पहलू
आरएंडी के व्यक्ति को परियोजनाओं से मतलब होता है। उसे पता होता है कि क्या चाहिए। वह हमेशा आपको वही देगा जो वह बना सकता है, जो वह समझता है। उसे अकेले में खुशी होती है। सबसे अहम बात यह है कि वह अपने पद पर लंबे समय तक बना रहता है; उसमें स्थायित्व होता है। उसके भीतर क्षमता होती हैं, लेकिन वह कल्पना की लंबी उड़ान नहीं भरना चाहता। उसके लिए उत्पाद ही अंतिम पड़ाव होता है। उत्पाद कारगर है या नहीं, इससे उसे कोई मतलब नहीं होता। उसे लगता है कि उपयोगकर्ता हमेशा लक्ष्य बदलता रहता है और उसका उत्पाद सर्वश्रेष्ठ है। समय का ध्यान रखना उसकी खासियत नहीं होती। उसे पता होता है कि वह वक्त पर काम नहीं कर पाएगा, लेकिन वह काम का वायदा कर लेगा और उत्पाद तैयार होने का ऐलान कर देगा, जबकि उत्पाद उस वक्त अधूरा ही होगा। सबसे अहम बात यह है कि वह अपने अनुसंधान में सफल हो भी गया और उत्पाद तैयार कर भी दिया तो उसे यह नहीं पता होगा कि उसका उत्पादन कैसे आरंभ किया जाए। वह सबसे अच्छा काम तब करता है, जब वह उपयोगकर्ता के साथ जुड़ा होता है और उसके साथ काम करता है। उसका क्षमता से कम इस्तेमाल होता है।
औद्योगिक झंझट
गुणवत्ता की कमी सार्वजनिक उद्योग और उत्पादन एजेंसियों के लिए अभिशाप है। ओएफबी जैसी एजेंसियों अथवा किसी सार्वजनिक उपक्रम में गुणवत्ता और समय बड़ी समस्या हैं। उनके पास सुधार करने का तरीका अथवा इच्छा भी नहीं है। उन्हें जल्द से जल्द ठेके और एकाधिकार चाहिए। खराब गुणवत्ता के साथ लेटलतीफी भरी आपूर्ति और बैक अप (सहायता) न होना उनका नियम है। उनके कर्मचारियों का उपयोगकर्ताओं के साथ न तो कोई संपर्क होता है और न ही वे संपर्क रखना चाहते हैं। वे अलग-थलग रहना पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें उसी में राहत मिलती है। उन्होंने जो वायदा किया है, वे उससे कम ही देंगे। इसके अलावा सार्वजनिक उपक्रमों के उत्पाद बहुत महंगे होते हैं और विश्वसनीय भी नहीं होते। विलंब से आपूर्ति, घटिया गुणवत्ता और ऊंची कीमत मिलकर बहुत चोट करती हैं और अभियान के लिए तैयारी को कम कर देती हैं। इसीलिए उपयोगकर्ताओं को हमारे सार्वजनिक उपक्रमों में बहुत कम भरोसा है।
निजी उद्योग वाला इस क्षेत्र में नया आया है। उसे लगता है कि उसका काम ठेके हासिल करना है और वह नहीं जानता कि उसकी सीमाएं हैं। चूंकि इस समय ‘मेक इन इंडिया’ लोकप्रिय शब्द है और निजी क्षेत्र का व्यक्ति जानता है कि रक्षा में मार्जिन बहुत अधिक है, इसीलिए वह किसी भी तरह इस कतार में जगह बनाना चाहता है। निजी क्षेत्र की ओर से सबसे बड़ा खतरा यह है कि उसे जानकारी नहीं होती और वह उसे मानने या सुधरने के लिए तैयार भी नहीं होता।
उनमें से कई तो विदेशी आपूर्तिकर्ताओं की छवि सुधारने का काम करते हैं अथवा मोटी रकम लेकर उनके बिचौलिये बन जाते हैं। अनुसंधान में निवेश करना इस क्षेत्र की बड़ी कंपनियों को भी पसंद नहीं आता। जरूरत के मुताबिक उत्पाद तैयार करने के लिए उन्हें अभी लंबा सफर तय करना होगा। निजी हो या सार्वजनिक हो, उद्योग के लिए खतरा यह है कि कीमत बहुत ज्यादा है। भारतीय उद्योग विदेशी कंपनियों की तुलना में बहुत महंगा है। यदि भारतीय उद्योग को काम करना है तो उसे लागत कम करने पर भी ध्यान देना होगा।
गुणवत्ता से बेपरवाह
हमारे संगठन में डीजीक्यूए छिपा हुआ खिलाड़ी है। हमारी खरीद श्रृंखल के प्रत्येक चरण में बाधाएं डालकर यह खरीद के सभी मामलों में फर्राटा दौड़ को बाधा दौड़ में बदल देता है। यह अपारदर्शी है। समूचे तंत्र को नहीं पता कि यह किसके लिए काम कर रहा है। इसे जिनके लिए काम करना होता है, उनको भी इसमें बहुत कम भरोसा है। इसे औसत लोग चलाते हैं, जिनका काम करने का तरीका और संगठन पूरी तरह अपारदर्शी है। कर्मचारियों की भर्ती, ढांचे, निर्देश और नियंत्रण के मामले में इसमें बहुत बदलाव लाने की आवश्यकता है।
समय का आयाम
एक बड़ा तथ्य हमारे तंत्र से लगभग पूरी तरह गायब है। वह है – समय की समझ। समय धन भी है और क्षमता भी – चाहे पाया जाए अथवा गंवाया जाए। खरीद जितनी जल्दी होगी, उतनी सस्ती पड़ेगी और क्षमता भी बढ़ जाएगी। देर होगी तो खरीद महंगी पड़ेगी और उसके पूरा होने तक क्षमता भी हासिल नहीं होगी। इसके अलावा यदि समय को सीमा से परे खींचा गया तो हो सकता है कि क्षमता की आवश्यकता भी न पड़े अथवा लक्ष्य बदल गए हों, जिससे क्षमता अप्रासंगिक हो जाए। अभियानों की जमीनी स्थिति बदलने से अथवा तकनीक के अप्रासंगिक हो जाने से लक्ष्य बदलते रहते हैं। हमारी खरीद के लिए यह अभिशाप है। समय बीतने के साथ मामले इकट्ठे होते जाते हैं और दिशा खोने लगते हैं तथा धूल खाते रह जाते हैं।
आगे की तस्वीर
कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि ऊपर बताई गई कुछ मानवीय वास्तविकताएं हमारी रक्षा खरीद तथा सैन्य कर्मियों को उनके हथियार देने के उद्देश्य में बाधा खड़ी करती हैं। डीपीपी 2016 समेत कोई भी डीपीपी हमारी समस्याओं का समाधान नहीं करेगी। यदि हमारे रक्षा पेशेवर इनके साथ काम करना नहीं जानते तो इनसे समस्याएं बढ़ ही जाएंगी। यदि हम इस तस्वीर के परे देखें तो साफ हो जाएगा कि यदि हमें कामयाब होना है तो हमें इस व्यापार को सीखना होगा। हमें ऐसे साझे मंच के बारे में सोचना होगा, जहां हमारी ताकत बढ़ जाए, व्यक्तिगत कमजोरियों को साझे ज्ञान के जरिये दूर कर दिया जाए। स्वतंत्र और एक दूसरे के साथ सहयोग नहीं करने वाले खेमों की तरह काम करने वाले हमारे रक्षा संगठनों को शीर्ष, मझोले और निचले स्तरों पर दोतरफा सहयोग करना होगा।
यही समय है, जब सरकार को स्थिति का जायजा लेना चाहिए और इस बात पर विचार शुरू करना चाहिए कि हमारे रक्षा पेशेवरों को शिक्षित कैसे करना है और उन्हें खराब जानकारी तथा घटिया टीमवर्क वाले अलग-थलग कर्मचारियों के बजाय मिलकर काम करने वाले सर्वांगीण कर्मचारी कैसे बनाया जाए। खरीद तंत्र कभी उस पर से नजर नहीं हटा सकता, जिसके लिए वह काम करता है – रणक्षेत्र में जवान। इस लेख के मूल उद्देश्य का सार यही है।
ले. जन. (सेवानिवृत्त) पी आर शंकर
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