वरिष्ठता के पुराने नियम को छोड़ भारत का सेना प्रमुख चुनना
तैंतीस साल पहले भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने वरिष्ठ होने के कारण को भूलकर आर्मर्ड कोर्प्स के अधिकारी, लेफ्टिनेंट जनरल ए.एस. वैद्य को सेना प्रमुख बनाया था। उनसे वरिष्ठ अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल एस.के. सिन्हा, जो की गोरखा रेजिमेंट के अफसर थे, उन्होंने सम्मानपूर्वक सेना से विदाई ली।
किस्मत से इस बार पासे पलट गए हैं। लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत, जिन्हें अगले सेना प्रमुख के रूप में नियुक्त करने का फैसला सरकार ने पिछले शनिवार को दिया, वो गोरखा रेजिमेंट के हैं। उनसे वरिष्ठ इस बार दो अधिकारी थे, लेफ्टिनेंट जनरल प्रवीण बख्शी, और जनरल पी.एम. हारिज़। जनरल बख्शी पूर्वी सेना कमान के प्रमुख हैं जो आर्मर्ड कोर्प्स के हैं, जबकि जनरल हारिज़, पुणे में आधारित दक्षिणी सेना कमान संभालते हैं और मेकेनाइजड इन्फेंट्री के अधिकारी हैं।
पुराने दौर के जानकारों के मुताबिक श्रीमती इंदिरा गाँधी ने उस वक्त अपना कार्यकाल समाप्त कर रहे जनरल के.वी.कृष्णा राव से पूछा था कि उनके मुताबिक किसे ये पद दिया जाना चाहिए। माना जाता है कि जनरल कृष्णा राव जो नैतिकता के सख्त मापदंडों वाले अफसर थे उन्होंने श्रीमती गाँधी को बताया कि जनरल वैद्य मैदानी युद्धों में बहुत अच्छे हैं (उन्हें दो महावीर चक्र 1965 और 1971 के युद्ध में मिले थे) जबकि जनरल सिन्हा शांति काल में काफी अच्छा काम करते हैं। अब चुनाव आप पर है।” श्रीमती गाँधी ने, युद्ध क्षेत्रों के अच्छे नायक को सेना प्रमुख बनाया और जनरल वैद्य सेना प्रमुख हुए।
जनरल रावत के मामले में भी ऐसा ही लगता है कि युद्धों का उनका बेहतर अनुभव उनके काम आया। दुसरे दो उम्मीदवारों में से सरकार ने जनरल रावत का चुनाव उनके अनुभव को देखते हुए ही किया होगा। जैसे उदाहरण के लिए जनरल रावत, राष्ट्रिय रायफल सेक्टर में ब्रिगेडियर थे और बारामुल्ला में 19वीं डिवीज़न की कमान मेजर जेनेरल के तौर पर जम्मू कश्मीर में आतंकवाद के कठिन दौर में संभाल रहे थे। इसी दौर में उनपर संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधित्व का भार भी था। ऑपरेशन फालकन के दौरान वो तवांग में 1986-87 में वो 5/11 गोरखा रायफल की कमान भी संभाल रहे थे। लेफ्टिनेंट जनरल के तौर पर उन्होंने दीमापुर में 3 कोर्प्स की कमान संभाली थी, उसके बाद वो दक्षिणी सेना कमान का भार संभालते रहे, अपने आखिरी छह महीने उन्होंने दिल्ली में सेना उपप्रमुख के तौर पर बिताये हैं।
लेफ्टिनेंट जनरल बख्शी को एक कड़क और पेशवर अफसर के तौर पर जाना जाता है। उन्होंने अपने ब्रिगेड की कमान राजस्थान के रेगिस्तानों में संभाली है और तीन सितारा धारक अफसर होने से पहले उन्होंने काफी कम समय जम्मू कश्मीर या फिर उत्तर पूर्व में बिताया है। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि आर्मर्ड कोर्प्स के अफसरों को जनरल ड्यूटी के इलाकों के बाहर कम ही भेजा जाता है।
इस बात में कोई शंका नहीं है कि अगर जनरल बख्शी को पदोन्नति मिलती तो वो सी.ओ.ए.एस. की जिम्मेदारियां बखूबी निभाते, लेकिन सरकार की मंशा शायद जनरल रावत के जम्मू कश्मीर के अनुभवों को इस्तेमाल करने की थी। पाकिस्तान के इस इलाके में जारी छद्म युद्ध के जल्दी ख़त्म होने की कोई संभावना नहीं है। जनरल रावत अपना पदभार 31 दिसंबर को जनरल दलबीर सिंह के रिटायर होने पर संभालेंगे। जनरल रावत की पदोन्नति ने विपक्षी दलों के साथ साथ कई तथाकथित दिग्गजों को भी सरकार के कामकाज और निर्णय पर सवाल उठाने का मौका दे दिया है।
सरकार अपने अधिकार क्षेत्र के अन्दर ही है, क्योंकि उन्होंने जो नाम रक्षा मंत्रालय से सुझाव के तौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय आये और कैबिनेट की निर्णय समिति के सामने पेश हुए, उन्हीं में से चुनाव किया है। सरकार ने अपनी सूझ बूझ से जनरल रावत को इस उच्च पद के लिए चुना है। इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं निकाला जाना चाहिए कि बाकी दो उम्मीदवार कम काबिल थे। जनरल वैद्य-सिन्हा का मामला छोड़ भी दें तो भारतीय सेना के अलावा नौसेना और वायु-सेना में ऐसे मामले हुए हैं जब वरिष्ठता को दरकिनार कर के काम के अनुभव को तजरीह दी गई हो। सन 2014 में यू.पी.ए. सरकार ने एडमिरल रोबिन धोवन को नौसेना प्रमुख बनाते समय वाईस एडमिरल शेखर सिन्हा का वरिष्ठ होना नहीं देखा। उस से पहले अस्सी के दशक में वायुसेना में ऐसे मामले दो बार हुए हैं।
सरकार के जनरल रावत की नियुक्ति से वो परंपरा भी टूटती है, जिससे भारतीय सेना के बारे में पूर्वकथन देना आसान हो जाता था। हाल के दौर में एक सितारा वाले (ब्रिगेडियर और उस के समकक्ष) अफसरों को काफी पहले से पता होता था कि किसे दो सितारा, या तीन सितारे के स्तर की पदोन्नति मिलेगी। छह साल बाद कौन सेना प्रमुख होगा ये भी जन्म तिथि और वरिष्ठता को देखकर आसानी से पूर्वानुमान से बताया जा सकता था। इसकी वजह से जैसे जैसे वरिष्ठता बढ़ती उच्च पदों के अधिकारी ‘सुरक्षित’ फैसले लेने लगते थे। सरकार को किसी तरह से नाराज ना करने की प्रवृति बढ़ जाती थी, सैन्य अधिकारी दब्बू हो रहे थे। एक ऐसी श्रेणी भी विकसित हो रही थी जो अपने नेतृत्व और निर्णय लेने की क्षमता पर पदोन्नति के बदले किसी ‘गॉडफादर’ की शरण ढूंढकर बैठ जाते थे।
वरिष्ठता के इस पुरातन सिद्धांत को किनारे करते हुए सरकार ने ये स्पष्ट कर दिया है कि केवल योग्यता और पात्रता ही सेना के उच्च पदों पर आसीन होने का मापदंड है। ऐसे लोग जो ‘सुरक्षित निर्णय’ लेने में विश्वास रखते थे, ये झटका उन्हें अचानक अपनी नींद से भी जगा देगा।
इसके अलावा इस पद के लिए ‘योग्यता’ किन्ही गुप्त दस्तावेज़ों, या पुरस्कारों और स्तर पर आधारित नहीं है। इतने ऊँचे पदों पर योग्यता का सीधा मतलब होता है कि व्यक्ति राजनैतिक नेतृत्व के साथ, मौजूदा हालात में, काम कितनी सरलता से निपटा देता है। व्यक्तित्व में इसके लिए कई गुणों का होना जरूरी है, जोख़िम उठाने की क्षमता, निर्णय लेने की क्षमता, जटिलताओं को झेलने की शक्ति, कई अर्थों में से उचित मतलब निकालना और मुश्किल हाल में भी ठंडा दिमाग रखकर दुसरे साझेदारों के साथ, राष्ट्रिय सुरक्षा के हित में फैसले ले सके, ये जरूरी है।
गौर किया जाए तो ये वरिष्ठता का नियम सेना के उच्च पदों के लिए कई सेनाओं में इस्तेमाल नहीं होता। चाहे वो अमेरिका हो, फ्रांस, जर्मनी, चीन, यहाँ तक कि पाकिस्तान की सेनाएं भी ऐसा कोई नियम नहीं मानती। ऐसा कोई कारण नहीं है जो भारत को इस वरिष्ठता के नियम को ताक पर रख देने से रोकता हो।
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of BharatShakti.in)