खत्म नहीं होने वाला (नॉन-लैप्सेबल) रक्षा आधुनिकीकरण कोष बनाने के मसले पर हमारे संदर्भ में कई वर्षों से चर्चा होती आई है। किंतु इस प्रस्ताव में कई खामियां हैं। जो कोष तैयार करने के लिए पहले ही ब्याज भुगतान के बोझ तले दबी हुई सरकार को और कर्ज लेना पड़े, उस कोष को धन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग तो नहीं कहा जा सकता। अगर यह ध्यान रहे कि रक्षा मंत्रालय सदैव ही पूरे धन का प्रयोग करने में नाकाम रहता है तो नॉन-लैप्सेबल फंड की और भी कम तुक लगती है।
लेखक इस मामले के गुण और दोष पर व्यापक दृष्टि डाल रहे हैं और सार्वजनिक चर्चा में शामिल नहीं होने वाले कुछ ऐसे मसलों की बात भी कर रहे हैं, जिनसे पता चलता है कि रक्षा मंत्रालय कई वर्षों से आवंटित धन से कम धन का प्रयोग क्यों करता आया है। क्या यह रक्षा मंत्रालय की ही गलती है अथवा इसके पीछे वित्त मंत्रालय का हाथ है?
नॉन लैप्सेबल रक्षा आधुनिकीकरण कोष – व्यर्थ कवायद
रक्षा पर स्थायी समिति रक्षा मंत्रालय से खुश दिखे, ऐसा अक्सर नहीं होता। लेकिन इस बार रक्षा मंत्रालय ने नॉन-लैप्सेबल फंड के निर्माण पर दशक भर से भी पुराने अपने रुख पर पुनर्विचार कर समिति को प्रसन्न कर दिया। विचार यह है कि वित्त वर्ष के अंत में खर्च होने से बची राशि को इस कोष में डाल दिया जाए। बाद में सशस्त्र सेनाओं के आधुनिकीकरण से संबंधित पूंजीगत खरीद के लिए आवश्यकता के अनुसार इसका उपयोग किया जाएगा।
यह स्वीकार करते हुए कि ऐसे कोष की उपयोगिता को खारिज नहीं किया जा सकता, रक्षा मंत्रालय ने कोष के सृजन के लिए ‘सैद्धांतिक’ मंजूरी प्राप्त करने हेतु 9 फरवरी 2017 को वित्त मंत्रालय के पास प्रस्ताव भेजा, हालांकि जैसा कि समिति ने 9 मार्च 2017 को संसद में प्रस्तुत अपनी 31वीं रिपोर्ट में कहा, वित्त मंत्रालय को संभवतः इसकी उपयोगिता पर यकीन नहीं है।
यह विचार 2004 से ही घूम रहा है, जब 2004-05 का अंतरिम बजट पेश करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री ने 25,000 करोड़ रुपये का रक्षा आधुनिकीकरण कोष बनाने का ऐलान किया था। कोष का उद्देश्य सशस्त्र सेनाओं के आधुनिकीकरण के लिए आवश्यक उपकरणों एवं शस्त्र प्रणालियों की खरीद के लिए पर्याप्त धन मुहैया कराना था। घोषणा के उपरांत हुए आम चुनावों में सरकार की हार के साथ विचार ठंडे बस्ते में चला गया।
यह कोई नहीं बता सकता कि इस बार वास्तव में कोष का सृजन होगा अथवा नहीं। बहरहाल इस बात के बहुत अवसर दिख रहे हैं क्योंकि इस समय वही पार्टी सत्ता में है, जिसने 2004 में यह विचार प्रस्तुत किया था। किंतु वित्त मंत्रालय को ऐसे प्रस्ताव के लिए मनाना मुश्किल होगा, जो प्रस्ताव तर्कसंगत और उपयोगी नहीं है।
एक बात तो है, सरकार उतना नहीं कमाती, जितना खर्च करती है, इसीलिए रकम उधार लेना आवश्यक हो जाता है। 2016-17 के संशोधित अनुमानों में 5,34,274 करोड़ रुपये के भारीभरकम राजकोषीय घाटे (खर्च में से राजस्व को घटाने के बाद शेष राशि, जिसमें उधारी शामिल नहीं) की बात कही गई है।
2016-17 के संशोधित अनुमानों के अनुसार लगभग 7,000 करोड़ रुपये का पूंजीगत बजट खर्च हुए बगैर ही रह जाने की संभावना है। यदि इस राशि को भारत की सकल निधि से से निकाल लिया जाए और नॉन-लैप्सेबल फंड में डाल दिया जाए तो यह बिल्कुल वैसा ही होगा, जैसे रकम उधार लेकर कहीं रख दी जाए और सरकार उसका ब्याज चुकाती रहे। यह आर्थिक रूप से समझदारी नहीं कही जाएगी।
मामले को ठीक से समझने के लिए यह जान लेना चाहिए कि केंद्रीय बजट में सबसे अधिक खर्च ब्याज भुगतान के मद में ही होता है। 2016-17 के संशोधित अनुमानों में ब्याज भुगतान पर 4,83,069 करोड़ रुपये खर्च होने की संभावना है। 2017-18 के लिए इस मद में 5,23,078 करोड़ रुपये खर्च होने की संभावना है, जबकि 2015-16 में वास्तविक खर्च केवल 4,41,659 करोड़ रुपये रहा था।
दूसरा विकल्प यह है कि भारत की सकल निधि से धन को वास्तव में नहीं निकाला जाए बल्कि उसे सांकेतिक रूप से उसे नॉन-लैप्सेबल फंड में डाल दिया जाए। इसमें भी समस्याएं हैं क्योंकि बाद के वर्षों में यदि रक्षा मंत्रालय कोष में पड़े धन को खर्च करना चाहेगा तो सरकार को अधिक धन उगाहना होगा।
मान लेते हैं कि 2016-17 में जो 7,000 करोड़ रुपये (बजट अनुमानों तथा संशोधित अनुमानों के बीच अंतर) बिना प्रयोग हुए बच जाने की संभावना है, उन्हें सांकेतिक कोष में डाल देते हैं। उसके बाद 2017-18 के लिए आवंटित 86,339.95 करोड़ रुपये भी उसमें जुड़ जाएंगे। मान लीजिए कि 2017-18 में रक्षा मंत्रालय को इस वित्त वर्ष के लिए आवंटित धन के अतिरिक्त कोष में पड़े धन का प्रयोग करने की जरूरत पड़े तो सरकार को 2017-18 में कुल 93,339.05 करोड़ रुपये (7,000 करोड़ रुपये $ 86,339.95 करोड़ रुपये) जुटाने होंगे।
वित्त मंत्रालय को न केवल इस जरूरत के बारे में पहले से सूचना देनी होगी ताकि धन जुटाया जा सके बल्कि 2017-18 में धन के उपयोग के लिए बजट प्रक्रिया के तहत संसद की मंजूरी की आवश्यकता भी पड़ेगी। (रक्षा पर स्थायी समिति को यह बात वित्त मंत्रालय कई मौकों पर बता चुका है।) यह बात तो स्पष्ट है कि रक्षा मंत्रालय इस कोष में पड़े धन को स्वतः और बेरोकटोक इस्तेमाल नहीं कर पाएगा।
उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन वर्षों में रक्षा मंत्रालय को नॉन-लैप्सेबल फंड की रकम खर्च करनी होगी, उन वर्षों में धन जुटाने में परेशानी बढ़ती जाएगी क्योंकि कोष का धन भी बढ़ता जाएगा।
विभिन्न विश्लेषक मानते हैं कि आवंटन से कम राशि के उपयोग का दोष रक्षा मंत्रालय अथवा सेनाओं के सिर मढ़ना गलत होगा और वास्तव में यह वित्त मंत्रालय का किया धरा होता है क्योंकि वह उन प्रस्तावों को निपटाने में देर करता है, जिनके लिए रक्षा पर मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीएस) की मंजूरी आवश्यक होती है।
वित्तीय अधिकारों की वर्तमान व्यवस्था के अनुसार खरीद का मूल्य यदि 2,000 करोड़ रुपये से 3,000 करोड़ रुपये के बीच होता है तो खरीद के प्रस्तावों को वित्त मंत्री की मंजूरी तथा इससे अधिक मूल्य होने पर सीसीएस की मंजूरी दिलानी होती है।
हालांकि वित्त मंत्रालय द्वारा ऐसी साजिश का कोई प्रमाण नहीं है, लेकिन मान लें कि ऐसा ही है तो भी यह कल्पना करना मुश्किल है कि नॉन-लैप्सेबल फंड बनने से उस पर रोक कैसे लगेगी। जब तक खरीद के खास प्रस्तावों को मंजूरी देने में वित्त मंत्रालय की भूमिका को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जाएगा, वह प्रस्तावों को निपटाने में देरी जारी रख सकता है। यह न तो वांछनीय होगा और न ही व्यावहारिक।
ध्यान देने वाली बात है कि रक्षा पर स्थायी समिति ने जब यह पूछा कि 2016-17 के संशोधित अनुमानों में पूंजीगत व्यय के लिए आवंटन में जो कटौती की गई है, उसका कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा तो रक्षा मंत्रालय ने सेना के लिए सतह से हवा में मध्यम दूरी तक मार करने वाली (एमआरएसएएम) अस्त्र प्रणाली के अलावा ऐसे किसी भी सौदे का ब्योरा नहीं दिया, जो धन उपलब्ध नहीं होने के कारण नहीं हो सका। एमआरएसएएम के लिए 1,579 करोड़ रुपये का अग्रिम भुगतान होना था।
रक्षा मंत्रालय ने यह निष्कर्ष निकाला कि यह सौदा इसलिए लटक गया क्योंकि 2016-17 के संशोधित अनुमानों में आवंटन में की गई कटौती को स्वीकार करना कठिन था। फरवरी 2017 में जब रक्षा पर स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी, उस समय यह प्रस्ताव सीसीएस के पास विचाराधीन था। इसलिए उसे मंजूरी मिलनी बाकी थी। यदि इसे सीसीएस से मंजूरी मिल गई होती/शीघ्र मिल जाएगी तो भी 2016-17 के दौरान अग्रिम भुगतान हेतु रकम की आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि सौदे पर हस्ताक्षर करने और हस्ताक्षर के उपरांत अग्रिम भुगतान प्राप्त करने हेतु बैंक गारंटी पेश करने में आपूर्तिकर्ता को समय लगता।
ऐसा भी नहीं है कि 2016-17 के संशोधित अनुमानों में आवंटन में कटौती के बाद पूंजीगत बजट के अंतर्गत बिल्कुल भी धन नहीं बचेगा। रक्षा पर स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार दिसंबर 2016 आने तक संशोधित अनुमानों के आवंटन का लगभग 25 प्रतिशत (लगभग 8,000 करोड़ रुपये) धन खर्च करने के लिए उपलब्ध था। इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि इसमें से एमआरएसएएम सौदे के लिए अग्रिम भुगतान नहीं किया जा सकता था। और कुछ नहीं होता तो कम से कम 2017-18 शुरू होते ही उस वर्ष के आवंटन में से इस सौदे पर हस्ताक्षर हो सकते हैं।
एक ओर रक्षा पर स्थायी समिति ने कोष के सृजन का जोरदार समर्थन किया है, दूसरी ओर उसने इस बात पर निराशा भी व्यक्त की है कि रक्षा मंत्रालय अपनी आवश्यकता की तुलना में बहुत कम मिले धन का भी पूरा उपयोग नहीं कर पाता है। समिति के अनुसार इससे ‘पता चलता है कि रक्षा मंत्रालय द्वारा बनाई जा रही योजना तथा बजट तैयार करने की प्रक्रिया में कितनी खामियां हैं।’ समिति रिपोर्ट में यह भी कहती है कि ‘आवंटित धन का उपयोग करने में लगातार असफल रहने के कारण भी वित्त मंत्रालय की ओर से रक्षा मंत्रालय के बजट आवंटन में कटौती हुई है।’
यह एकदम मार्के की बात है। यदि रक्षा मंत्रालय योजना बनाने या बजट तैयार करने में दिक्कतों के कारण अपने पास आए धन का पूरा उपयोग भी नहीं कर पा रहा है तो अधिक धन की अथवा इस्तेमाल नहीं हुए धन को नॉन-लैप्सेबल फंड में भेजने की मांग करना कहां की समझदारी है। नॉन-लैप्सेबल फंड बनने से ये समस्याएं दूर नहीं होंगी। इसके उलट इससे योजना तथा बजट तैयार करने में खामियां और भी बढ़ सकती हैं। धन पूरा उपयोग नहीं होने के जो भी कारण हों, रक्षा मंत्रालय को उन्हें दूर करना चाहिए।
कुछ भी हो, अग्रिम अथवा बाद के भुगतान के लिए रकम की उपलब्धता खरीद के प्रस्तावों पर काम करने की शर्त नहीं होती। इसीलिए अपर्याप्त धन के आवंटन को प्रस्तावों पर काम करने में होने वाले विलंब के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। रक्षा मंत्रालय तथा सेनाओं को बिना इस्तेमाल हुए धन को इकट्ठा करने के लिए नॉन-लैप्सेबल फंड बनाने की व्यर्थ की कवायद के बजाय इस समस्या पर ध्यान देने की जरूरत है।
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